अपने इस शुरुआती लेख में मैंने वादा किया है कि पैरंटिंग यानी परवरिश और मानसिक सेहत के बीच एक संबंध की छानबीन करूंगी. लिहाज़ा ये रहे मेरे विचारः जो अभिभावकों की हताशाओं के बच्चे की मानसिक सेहत पर पड़ने वाले संभावित असर के बारे में बताते हैं.
कक्षा 6 में पढ़ने वाली एक किशोरी को पढ़ाई लिखाई में ख़राब प्रदर्शन की वजह से उसकी टीचर ने मेरे पास भेजा था. टीचर को लगता था कि उसका ध्यान भटका रहता है और वो किसी चीज़ पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाती है. उसने किशोरी के अभिभावकों से भी कई बार बात की, फिर भी उसे लगता था कि बात दरअसल उतनी नहीं है जितना कि दिख रही है. इसलिए एक दिन ये लड़की मुझसे मिलने आई और ख़ुशक़िस्मती से हम एक दूसरे के साथ जल्दी ही सहज भी हो गए.
थोड़ी पूछताछ के बाद, लड़की ने मुझे अपने पांवों में कुछ घाव दिखाए. ये घाव तब पड़े थे जब उसकी मां ने उसे लोहे की गर्म छड़ से पीटा था. मैं तो हिल गई. परामर्शदाता या काउंसलर के रूप में आप भले ही कितने अनुभवी या परिपक्व क्यों न हो, कुछ स्थितियां ऐसी होती हैं जिनमें आप भी स्तब्ध रह जाते हैं. ये एक ऐसी ही स्थिति थी. मैं भी मां हूं और उसी की उम्र की मेरी भी बेटी थी, ये सोचते हुए मैं समझ नहीं पाई कि आख़िर कोई ऐसा अपनी बेटी के साथ कैसे कर सकता है.
बहुत सारे काम की ज़रूरत इस मामले में पड़ने वाली थी. मैं ख़ुद को एक लंबी यात्रा के लिए तैयार कर रही थी. मैंने पूरी कहानी समझने के लिए या अपनी तरफ़ से जितना कुछ मुझसे शेयर कर सकें, ये जानने के लिए, लड़की के मांबाप से मिलने का निश्चय किया. अपनी बेटी को इतना दर्द देने के पीछे आख़िर मां की कौनसी मजबूरी हो सकती है?
लगातार फ़ोन पर संपर्क करती रही. आख़िरकार लड़की के मांबाप आ गए. मुझे पता चला कि लड़की के मां पिता दोनों फ़ुलटाइम नौकरी करते थे. जब बच्ची की पढ़ाईलिखाई में गिरावट आने लगी, और उसमें लर्निग डिसएबिलिटी के लक्षण पाए गए, तो स्कूल ने उसके मांबाप को बुलाया और सूचित किया कि उस पर और व्यक्तिगत ध्यान देने की ज़रूरत है. स्कूल ने मां पर भी हल्का दबाव बनाना शुरू किया कि वो बच्चे पर और ध्यान दे. मां ने अपनी बेटी की पढ़ाई को देखने के लिए तंग आकर और खिन्नता में अपनी नौकरी ही छोड़ दी.
उसकी हताशाएं या कुंठाएं या खिन्नताएं क्या थीं? वे सिर्फ़ इस बात के लिए नहीं थी कि बच्ची की खातिर उसे अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी है, उसके क्षोभ के लैंगिक कारण भी थे यानी आखिर उसे ही मां की हैसियत से क्यों नौकरी छोड़नी थी, पिता को क्यों नही, आत्म सम्मान को हुआ नुकसान भी एक कारण था जो परवरिश या लालनपोषण से ज़्यादा नौकरी पर जाते हुए बना रह सकता था, अपने वैवाहिक जीवन से भी वो असंतुष्ट थी कि आखिर क्यों उसके पति ने नौकरी छोड़ने के लिए उस पर दबाव डाला, उसने क्यों उसे मान्यता नहीं दी जिसकी उसे ज़रूरत थी. आख़िरकार एक वजह, उसका अपने सास-ससुर और मां बाप के प्रति भी गुस्सा था कि वे आखिर उनकी बच्ची को देखने क्यों नहीं आ सकते थे.
इतनी सारी शिकायतें! और भी शायद रही होंगी, लेकिन हम अपनी मुलाकात के उस थोड़े से समय में इतनी ही बातें कर पाएं. वो पहले सेशन के बाद दोबारा नहीं आई.
और इन शिकायतों का ठीकरा किस पर फूट रहा था? इन खिन्नताओं की गाज किस पर गिर रही थी? 13 साल की एक असंदिग्ध मासूम बच्ची पर जो इस उम्र में कतई नहीं जान सकती थी कि आख़िर उसकी मां उससे इतनी नफ़रत क्यों करती है, जबकि उसकी सभी सहेलियों की माएं उनसे बहुत स्नेह रखती हैं और बहुत प्यार करती हैं.
ये बच्ची हमेशा ऐसे डर में रहने लगी कि कब उसकी मां उस पर फट पड़े, वो एक तरह के दर्द में रहने लगी- ये भावनात्मक भी था और शारीरिक भी. उसके संस्कार ऐसे थे कि घर की बातों को वो बाहर कहीं किसी से नहीं कह सकती थी, अपना दुखड़ा किसी को नहीं सुना सकती थी ताकि अपना भार हल्का कर सके. उसे लगने लगा कि वो परिवार के लिए एक शाप है और वो बिल्कुल भी अच्छी लड़की नहीं है. ये कोई रहस्य नहीं है, और मेरे लिए तो बिल्कुल नहीं, कि आख़िर क्यों बच्ची का स्कूल से ध्यान उचट गया था.
मैं पहली दो मुलाकातों के बाद उससे कभी नहीं मिली क्योंकि उसके माता पिता ने स्कूल बदलने का फ़ैसला किया था. वे दोबारा मेरे पास नहीं आए. व्यक्तिगत मुलाकात के लिए भी नहीं और पारिवारिक सेशन के लिए भी नहीं जिसके लिए मैं बार बार ज़ोर दे रही थी. आख़िरकार, समस्या की वजह स्कूल था, वे नहीं!
बहुत सारे सवाल मेरे ज़ेहन में अटके रह गए. इनमें से कुछ सवालों को मैं यहां रखूंगी.
अगर मां अपने मामलों से अपने ही स्तर पर निपटने की कोशिश करती- उन्हें पहचान कर, स्वीकार कर और उनका हल निकालकर तो क्या हालात बदले जा सकते थे? मैं एक पल के लिए भी मां को उसकी हताशाओं और खिन्नताओं के लिए दोष नहीं दूंगी. ज़ाहिर है वे जायज़ हैं. लेकिन अगर वो उनका हल निकालने का विकल्प चुनती, तो सारा का सारा क्लेश अपनी बेटी पर न उड़ेल देती. और उनके हल की दिशा में पहला कदम होता है उन्हें पहचानना, उन्हें स्वीकार करना और ये समझना कि आखिर क्या गड़बड़ है और हो क्या रहा है.
बच्चे की मानसिक सेहत और उसके हितों पर निजी निराशा और कुंठा का भार डाल देने का दूरगामी असर क्या हो सकता है? मेरे पास इस बात के लिए कोई आंकड़ा तो नहीं है, लेकिन मैं अंदाज़ा लगा सकती हूं. ऐसा होने पर हो सकता है कि बच्ची आत्मसम्मान में भारी कमी के साथ बड़ी हो, व्यक्तिगत और पेशेवर मोर्चों पर जिसका असर उसके भविष्य के संबंधों पर पड़े. हो सकता है वो अपनी ज़िंदगी में दूसरे रिश्तों पर भी विश्वास न रख पाए.
ये भी हो सकता है कि वो अपनी सामर्थ्य का पूरा इस्तेमाल न कर पाए क्योंकि अपने कंफ़र्ट ज़ोन से बाहर निकलने के लिए जो सुरक्षा कवच चाहिए होता है वो उसके पास नहीं होगा. वो एक अत्यंत चिंतित और घबराई हुई वयस्क बन सकती है. और भी बुरी बात ये है कि, वो भी अपने बच्चों पर अपनी निराशाओं को थोपने के दुष्चक्र का हिस्सा बन सकती है – क्योंकि उसके खुद के पास परवरिश के किसी और तरीक़े की जानकारी या अनुभव ही नहीं होगा.
आप सब जानते हैं कि मां भी बड़े होने के अपने अनुभव को जारी रखे हुए थी. जितना जल्दी हम इस पैटर्न को समझेंगे, और इस चक्र को तोड़ेंगे, उतना जल्दी हम अपने बच्चों का कल्याण कर पाएंगें और उनकी सेहत को सुरक्षित रख पाएंगें. अपने बच्चों की मानसिक सेहत के लिए, हमें लगाम कसकर पकड़नी चाहिए और अपनी निराशाओं से मुकाबला करने के लिए खुद को तैयार करना चाहिए, उनका समाधान हम अपने ही हाथों से कर सकते हैं.
ये काम हम अपने लिए न करें, अपने बच्चों के लिए तो कम से कम ये तरीक़ा अपनाना ही होगा. ऐसा नहीं है कि हमें कभी निराश या खिन्न नहीं होना चाहिए और ऐसा महसूस करना गलत है. कई स्थितियों में निराशा या कुंठा का आ जाना सामान्य बात है, ये स्वाभाविक है. लेकिन उस निराशा के प्रति सजग रहना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए कि वो हमें किस तरफ़ ले जा रही है, हम ये कर पाएंगे तो ज़रूरत पड़ने पर लगाम को कस पाएंगें.
जो उदाहरण मैंने दिया है, हो सकता है वो थोड़ा अतिरंजना जैसा लगे. और हम सोच सकते हैं कि हमारी अपनी स्थिति से इसका कोई ताल्लुक नहीं बनता है, लिहाजा इस पर ध्यान देने की हमें ज़रूरत नहीं है. हां, ये एक अतिरंजना है, और ये उदाहरण देने की बिल्कुल यही वजह है.
लेकिन कभीकभार किसी चीज़ पर ध्यान देने के लिए हमें एक अतिरंजित उदाहरण की ज़रूरत पड़ती है. निराशाएं अपेक्षाकृत रूप से बहुत हल्के रूपों में भी प्रकट हो सकती हैं- कोई अकेली मां, अपने पति के हालिया निधन के दुख से उबरने की कोशिश कर रही हो सकती है, उसे अपने दो बच्चों को पालना होता है और हर समय मुस्तैद रहना होता है, या कोई मां जो अपने पांच बच्चों को पाल रही है और एक साथ सब पर एक जैसा ध्यान दे रही हैं क्योंकि उनके पिता दूसरे देश में नौकरी करते हैं, या कोई सौतेली मां जिसे अपने वैवाहिक संबंध की सहजता के लिए ख़ुद को साबित करते रहने की चुनौती बनी रहती है और इसके लिए उसे सुनिश्चित करना होता कि उसका सौतेला बच्चा पढ़ाईलिखाई में अव्वल रहे, या कोई गृहिणी जिसे अपने अस्तित्वि का उद्देश्य और नियंत्रण खोने का डर सताता रहता है क्योंकि उसका बच्चा पिंजड़े से छुटकारा पाने की तैयारी कर रहा होता है.
ये कुछ भी हो सकता है, कुछ भी. निराशाएं और कुंठाएं कई रूपों में प्रकट होती हैं- हमें ज़रूरत हैं कि हम उन्हें पहचान लें, उन्हें स्वीकार करें और अपनी ख़ुद की निराशा के रूप में उनसे निपटने की कोशिश करें. अपने बच्चों को उनसे दूर ही रखें, उनपर उनकी छाया न पड़ने दें.
मौल्लिका शर्मा बंगलौर में कार्यरत एक काउंसलर यानी परामर्शदाता हैं. मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने के लिए वो अपना कॉरपोरेट करियर छोड़ कर आई हैं. मौल्लिका बंगलौर के रीच क्लिनिक में अपनी प्रैक्टिस करती हैं. अगर इस कॉलम से संबंधित आपके पास कोई सवाल हैं तो कृपया हमें लिखे इस ईमेल पते परः columns@whiteswanfoundation.org.