बच्चों को नियमित रूप से पीटा जाता है. घर पर और स्कूल में. आख़िरकार उन्हें अनुशासित रखने का ये सबसे असरदार तरीक़ा जो है, क्यों, है न? हां, सबसे आसान तरीक़ा तो खैर ये है ही. कितना असरदार है ये एक अलग ही कहानी है. मैं ऐसे कई बच्चों से मिली हूं जो छोटी से छोटी गल्तियों पर भी मार खाते हैं. और ऐसे वयस्कों से भी मिली हूं- जिन्होंने बचपन में मार खाई थी- नंगे हाथों से, स्केल से, छड़ी से, यहां तक कि लोहे की गरम छड़ से (जैसा मैंने अपने पिछले कॉलम में ज़िक्र किया था.)
ये बात अलग है कि मैं इस बारे में कितनी ज़्यादा क्षोभ में भर जाती हूं, फिर भी मैने इस बारे मे सोचना शुरू किया कि आखिर किन वजहों से अभिभावक अपने बच्चों को पीटते होंगे और इस पिटाई का उनके बच्चों पर क्या मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक प्रभाव पड़ता होगा.
तो फिर क्यों कोई अभिभावक अपने बच्चों को चोट पहुंचाएगा? पिछले कई वर्षों के दौरान कई अभिभावकों से मेरी जो बातचीत हुई है उनसे कई सारी संभव वजहें पता चलती है. इनमें से जो काफ़ी महत्त्वपूर्ण वजह नज़र आती है, वो ये है कि वे भी मार खाकर बड़े हुए हैं लिहाज़ा अपने बच्चों को भी अनुशासित करने का एक यही तरीका वे जानते हैं.
वे जीवन में सही रहे हैं, इसलिए उनके बच्चे भी सही रहेंगे, वे मुझे बताते हैं. “बच्चों की पिटाई किए बिना आप उन्हें कैसे सुधार सकते हैं?” आमतौर पर यही सुनने को मिलता है. ऐसे अभिभावकों के लिए मेरा सवाल है, “जब आपकी पिटाई होती थी तो क्या आपको अच्छा लगता था? उस समय आपकी क्या भावना होती थी?” उनके लिए ये बहुत पुरानी बात हो सकती है लेकिन अगर वो उन लम्हों को याद करने के लिए एक मिनट निकालें, तो कई साल पहले की वे भावनाएं सतह पर आ जाएंगीं: डर, गुस्सा, हताशा, चोट, अच्छा न बन पाने की भावना, उदासी और हां और जो उन्हें मारते थे उनके प्रति नफ़रत!
दूसरी वजह है चिंता और असहायता- अपने बच्चे के प्रदर्शन और भविष्य को लेकर चिंता, और उसे नियंत्रित न कर पाने की अयोग्यता से जुड़ी असहायता. इस बात की चिंता कि समाज उनके बच्चे को कैसे आंकेगा, उसका भविष्य कैसा होगा की चिंता, और शायद सबसे ऊपर ये कि अगर उनका बच्चा ‘सही’ या ‘परफ़ेक्ट’ नहीं निकला तो समाज उन्हें अभिभावक के तौर पर कैसे आंकेगा. इस तरह ये मामला उनकी दूसरी चिंताओं, तनावों, हताशाओं और नाकामियों से जुड़ी भड़ास भी निकालने लगते हैं.
अपनी भड़ास वो कभी पूरे होशोहवास में निकालते हैं कभी वो उनके अवचेतन में रहती है. जीवन के प्रति वे गुस्सा महसूस करते हैं और अपना गुस्सा वे इस तरह से ज़ाहिर करते हैं. जाने अनजाने वे अपना गुस्सा अपने बच्चों पर निकाल सकते हैं जो उनके सामने किसी तरह की प्रतिक्रिया करने में असमर्थ हैं. अभिभावकों को इस तरह अन्य स्थितियों से न निपट पाने की अपनी असहायता और अपनी हताशाओं से निपटने में खुद को सक्षम बनाने के बजाय, बच्चों पर नियंत्रण के ज़रिए उन्हें एक बहाना मिल जाता है.
बच्चों की बेहतरी के लिए पिटाई की ‘ज़रूरत’ और उपयोगिता को लेकर कई सारे मिथक प्रचलित हैं. कुछ मातापिता मानते हैं कि उन्हें सख़्त होना चाहिए और उनके बच्चों को उनसे डरा हुआ रहना चाहिए। इस तरह उन्हें लगता है वे बच्चों पर अपना नियंत्रण महसूस करते हैं. लेकिन होता इसके उलट है- डांट फटकार और पिटाई खाने वाले बच्चे ये मानने लग जाते है कि उनके माता पिता पूरी तरह से नियंत्रण से बाहर हैं और संरक्षक के तौर पर और मेंटर के तौर पर वे अभिभावकों की योग्यता पर विश्वास करना बंद कर देते हैं.
कुछ माता पिता मानते हैं कि अगर वे अपने बच्चे को पीटें तो बच्चा उनसे डरेगा और अपने काम पर ध्यान देगा, जीवन में कुछ हासिल करेगा और सही रास्ते पर चलता रहेगा. लेकिन इसके विपरीत, पिटाई के शिकार बच्चे अपने माता पिता के रास्ते से बिल्कुल अलग छिटक जाते हैं, और जो मन में आता है ठीक वही करते हैं और इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि उनके माता पिता को उनकी हरकतों के बारे में बिल्कुल भी भनक न होने पाए.
बच्चा अपने माता पिता के पीठ पीछे ‘ग़लत काम’ के प्रति प्रेरित होता जाता है. डर भी बच्चों का ध्यान भटका देता है और वे ध्यान लगाने में समर्थ नहीं हो पाते हैं. उनके भीतर जमा डर, उन्हें नाकामी से पर्याप्त बचाव के लिए तो प्रेरित कर देता है लेकिन उनके जीवन के सफ़र से आनंद छीन लेता है और उन्हें पनी सही सामर्थ्य तक नहीं पहुंचने देता है.
कुछ मातापिता मानते हैं कि बच्चों को पालने के लिए या अनुशासित करने के लिए कोई बेहतर या दूसरा रास्ता नहीं है. इसके विपरीत, ये शायद सबसे कम असरदार तरीका है. ये उन्हें सिखाता है कि हिंसा ठीक है. ये उन्हें सिखाता है कि उन्हें दूसरों की भावनाओं का आदर करने की ज़रूरत नहीं है. उन्हें सिखाता है कि वे किसी से प्यार पाने या सम्मान पाने लायक नहीं है.
कुछ मातापिता मानते हैं कि अनुशासित बनाए रखने के लिए दर्द भरा दंड देना ज़रूरी है क्योंकि सज़ा ऐसे ही दंड से असरदार होती है. इसके विपरीत, इससे बच्चों में माता पिता के प्रति नफ़रत और नापसंदगी की भावना आ जाती है. अनुशासन को असरदार बनाने के लिए, इसके नतीजे पहले से ही पता होने चाहिए और इसे सौ फीसदी समय तक बनाए रखना होगा.
कुछ मातापिता मानते हैं कि अनुशासन की भूमिकात बच्चे को अतीत में की गई गलती की कीमत चुकाने के रूप में है. इसके विपरीत अनुशासन का उद्देश्य होता है कि आइंदा बच्चा गलत व्यवहार न करें. और इसमें अभिभावकों के माइंडसेट यानी मनोवृत्ति में पूरी तरह से एक अलग बदलाव शामिल रहता है. पिटाई से जुड़ा दर्द इस मामले में पूरी तरह से अप्रासंगिक हो जाता है. सज़ा की निश्चितता का ज्ञान उसकी आकस्मिकता और उसके कष्टदायी अनुभव से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है.
इसलिए, बच्चो के लालनपालन और उन्हें अनुशासित बनाने के लिए पिटाई को ज़रिया बनाने के कई मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक नतीजे होते हैं. सबसे पहला तो ये कि बच्चा निरंतर भय में घिरा रहता है. और ज़्यादा महत्त्वपूर्ण ये है कि बच्चे ये सीख जाते हैं कि हिंसा किसी भी गलती की एक स्वीकार्य प्रतिक्रिया है और वे खुद भी इस पर अमल करना शुरू कर देते हैं.
वे स्कूल में इसे आज़माते हैं- दूसरे बच्चों को तंग करते हैं, उन्हें बुली करते हैं क्योंकि कहीं न कहीं वे भी शक्तिशाली दिखना चाहते हैं. या फिर वे डरे-सहमे, दब्बू, नियंत्रित और बुझे हुए बन जाते हैं और दूसरों के लिए आसान लक्ष्य बन जाते हैं. वे सिर्फ़ उतना ही काम करते हैं कि नाकामी से बचे रहें. वे आत्म-प्रेरणा से वंचित हो जाते हैं और सफलता हासिल करने के लिए प्रयत्नशील नहीं रह पाते हैं. वे अपनी वास्तविक सामर्थ्य का इस्तेमाल नहीं करते हैं और जीवन में कोई आनंद नहीं उठा पाते हैं.
वे अपने माता पिता से संवाद विरत हो जाते हैं यानी उनसे बात नहीं करते हैं, और अपनी भावनाएं और गतिविधियां छिपाने लगते हैं. इससे उनमें माता पिता के साथ एक रस्म अदायगी वाला रिश्ता रह जाता है. फिर उसमें प्रेम, संपर्क, संवाद, विश्वास और देखरेख वाले संबंध की गुंजायश नहीं रहती है.
इसलिए, अभिभावकों, आप अपनी चिंताओं और अपने अतीत की कमियों से निपटने के लिए कोई तरीका ढूंढें. इसके लिए आप ध्यान का सहारा लें, दोस्तों से बातचीत करें, या किसी काउंसलर की सहायता लें. समय निकालकर उस समय के बारे में सोचें जब आप ऐसे व्यवहार के शिकार बने थे.
मैं यही मानूंगी कि माता पिता बच्चों को बिना सोचे समझे पीटते हैं. ये क्षणिक आवेग के प्रति एक स्वस्फूर्त प्रतिक्रिया है. इसमें अपने बच्चे को चोट पहुंचाने का कोई तयशुदा इरादा नहीं होता है. और, इसीलिए, ये कोशिश अभिभावकों को अपने तात्कालिक विचारहीन कृत्य के संभावित दीर्घकालीन निहितार्थों के बारे में जागरूक करने की है.
यानी अभिभावक ये जान सकें कि बच्चों के प्रति उनके ऐसे व्यवहार का लंबे समय में क्या असर पड़ सकता है. इसके बावजूद वे ऐसा व्यवहार करते रहना चाहते हैं, तो कमसेकम ये उनका एक सोचासमझा विकल्प होगा और इसके नतीजों के बारे में भी वे भलीभांति जानते होंगे.
मौल्लिका शर्मा बंगलौर में कार्यरत एक काउंसलर यानी परामर्शदाता हैं. मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने के लिए वो अपना कॉरपोरेट करियर छोड़ कर आई हैं. मौल्लिका वर्कप्लेस ऑप्शन्स नाम की कर्मचारियों की अच्छी सेहत मौल्लिका बंगलौर के रीच क्लिनिक में अपनी प्रैक्टिस करती हैं. अगर इस कॉलम से संबंधित आपके पास कोई सवाल हैं तो कृपया हमें लिखे इस ईमेल पते परः columns@whiteswanfoundation.org.