बचपन

परिपूर्ण या कामचलाऊ? निस्वार्थ या स्वार्थी?

मौल्लिका शर्मा

मैं इस बात के प्रति सचेत हूं कि मेरे कुछ कॉलम पढ़ने के बाद आप अभिभावक के रूप में अपनी क्षमता पर संदेह करना शुरू कर सकते हैं, आप डर से इतना घिर सकते हैं कि आप ये सोचने लगेंगें कि चाहे आप कुछ भी कर लें, आपका आपके बच्चे पर गलत प्रभाव पड़ेगा ही. मानो आप पहले से ही अपने बच्चे के भविष्य के बारे में और उसे लेकर अपनी क्षमताओं के बारे में चिंतित न हो. मेरे डराने से और निराशा और पराजय की तस्वीर खींचने से क्या होता है.

प्रिय पाठकों, इस कॉलम के ज़रिए मेरा इरादा बतौर मातापिता आपको बच्चों की परवरिश की ख़ुशियों से जुदा करने का बिल्कुल भी नहीं है. या मेरा इरादा ये भी नहीं है कि आपकी क्षमता को लेकर आपके ज़ेहन में कोई शक पैदा करूं. बल्कि इसके ठीक उलट, मेरा इरादा आपको सचेत और जागरूक करने का है कि कैसे साधारण चीज़ें भी गलत हो जाती हैं और उन साधारण चीजों को ठीक करना कितना आसान है, बशर्ते हम ऐसा करने की इच्छा रखते हों.

परवरिश एक यात्रा है, बाकी ज़िंदगी की तरह. हम इसे आरामदेह, लक्ज़री वाली यात्रा के तौर पर देख सकते हैं, आगे बढ़ते हुए दृश्यावलियों को निहारते जाने का आनंद उठाना और रास्ते में आने वाले अवरोधों को पार करते रहना. या हम इसे देख सकते हैं एक लंबी और बीहड़ यात्रा की तरह जिसे हम किसी तरह बस पूरा कर लेना चाहते हैं जिसमें हर अवरोध एक नई परेशानी की तरह आता जाता है, और लक्ष्य तक पहुंचने में हमें देर होती जाती है. ये चुनाव हमारा है. इसके कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि हम सफ़र को लेकर कौनसा नज़रिया चुनते हैं, मूल बात है खुद के बारे में हमारे विचार और उम्मीदें. क्या हम लगातार खुद से परिपूर्ण यानी परफ़ेक्ट होने की उम्मीद कर रहे हैं? इस तरह तो हम अपनी उम्मीदों में हमेशा कमतर ही रहेंगे क्योंकि दुनिया में परफ़ेक्ट इंसान जैसी कोई चीज़ तो होती नहीं है. या हम उम्मीद कर रहे हैं कि हम जैसे हैं वैसे ही खुद को स्वीकार करते चलें, अपनी तमाम सामर्थ्य, योग्यता, अंतर्ज्ञान और सटीक इरादे और  के साथ जिसमें कुछ कमज़ोरियां, संदेह और चिंताएं भी शामिल हों. तो क्या मांबाप के तौर पर हम खुद को परफ़ेक्ट से कमतर मानने को तैयार हैं? क्या हम अपनी गल्तियों और नादानियों को स्वीकार करने में समर्थ हैं कि वे हमारे जीवन और तरक्की के सफ़र का एक सामान्य हिस्सा हैं?

इतना असहाय कोई किसी बात से नहीं होता जितना कि मातापिता बनने के समय- “अब मुझे परफ़ेक्ट होने की ज़रूरत है,” “ये एक ऐसा क्षेत्र हैं जहां मुझसे कोई गलती नहीं होनी चाहिए,” “अब हर कोई मुझे मेरे आधार पर जज नहीं करेगा, बल्कि मेरे बच्चे के आधार पर करेगा.” फिर भी मांबाप के रूप में  ज़िम्मदारी का जितना अहसास आता है उतना किसी और मामले में नहीं. मुझे याद है कि जब मैं अपने नवजात शिशु को देखा को देखा मेरे भीतर ज़िम्मेदारी की कैसी गहरी भावना भर गई थी- ये वो ज़िंदगी थी जिसके लिए मैं पूरी तरह से जिम्मेदार थी. वो जिंदगी जो अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह मुझ पर निर्भर थी. फिर मुझमें डर समा गया- क्या होगा अगर कुछ गलत हो गया? क्या होगा अगर मैं ठीक से निभा नहीं पाई? क्या होगा अगर मुझे कुछ हो गया तो? क्या मेरा बच्चा मुझे कभी याद भी रखेगा?
परवरिश की पूरे सफ़र में मेरे ख्याल से एक सतत बात ये है कि विरोधाभासी और टकराहट भरे ख्याल और भावनाएं आती रहती हैं- उम्मीद और डर, प्यार और गुस्सा, ख़ुशी और अफ़सोस, आशावाद और निराशावाद, भरोसा और शक, स्वार्थहीनता और साथ में अपने लिए कुछ समय की गुप्त चाहत, आज़ादी का पोषण जबकि निर्भरता की चाहत, अपने सपनों को तो पूरा करें जबकि बच्चों से चाहें कि वे अपने सपनों को जिएं, ऊंची उड़ान का उल्लास और नाकामी की मायूसी- रोलर कॉस्टर राइड की तरह.

तो क्या परवरिश एक निस्वार्थ भावना है या स्वार्थी? पहली बार जब ये सवाल मेरे सामने उठाया गया तो ज़ाहिर है मैंने कहा वो बिल्कुल निस्वार्थ भावना है- दूसरा ख़्याल तो कतई घृणित था. लेकिन आज जब मैं इस बारे में सोचती हूं, तो मैं अब सुनिश्चित नहीं हूं कि मैं परवरिश को लेकर क्या सोचती हूं. और हो सकता है मुझे इसकी ज़रूरत भी नहीं- हो सकता है इसमें दोनों ही बातें शामिल हों. और ये चलेगा!

मैं मानती हूं कि इस दुविधा या संदिग्ध स्थिति से निपटने के लिए, और निराशा के निरंतर शेड्स के बीच एक संभावित जवाब हो सकता है कि परवरिश के सफ़र का आनंद कैसे उठाएं. आप न तो परफ़ेक्ट हैं न ही ख़राब और आपको ऐसा होने की ज़रूरत भी नहीं, आपको ख़ुद को किसी लेबल की अतिशयता से चिपकने की ज़रूरत नहीं है. आप सही हैं. और आपको ये मानने की ज़रूरत है कि आप जो कर रहे हैं तात्कालिक स्थिति के लिहाज़ से सही कर रहे हैं. जब आपकी समझ बदलती है, या स्थिति बदलती है, तो आप अलग ढंग से अपने काम करते हैं. लेकिन ताज़ा हालात में आप सर्वश्रेष्ठ कर रहे हैं- और चाहे ये स्वार्थवश हो या निस्वार्थ, ये बस महत्त्वहीन सिमैन्टिक्स का मामला होता है. ख़ुद पर यक़ीन करना और सफ़र का आनंद उठाना- आख़िर में यही चीज़ें मायने रखी हैं. वाकई!