मैंने अपने जीवन में कई बार कई शहर बदले हैं, इस दौरान कई अनुभव हुए हैं - और इन सबने मुझे किसी तरह या अन्य तरीके से प्रभावित किया है। मैं लेसोथो (दक्षिण अफ्रीका से घिरे हुए एक राज्य) में पली बढ़ी। जब मैं 10 साल की थी, तो मेरे माता-पिता कोलकाता चले गए। सांस्कृतिक बदलाव को लेकर यह बड़ा झटका नहीं था, क्योंकि मैं हर गर्मियों में भारत जाया करती थी, लेकिन फिर भी इसमें अभ्यस्त होने के लिए कुछ समय लगा। जब मैंने वहां एक अंतरराष्ट्रीय स्कूल में जाना शुरू किया, तो मैंने वहां उन्हें भी देखा, जिनका यहां से संबंध नहीं था, मैंने उनसे दोस्ती बढ़ाना शुरू कर दिया। यह भगवान का आशीर्वाद ही रहा कि यहां मेरा परिवार और चचेरे भाई-बहिन थे। लेकिन मुझे अपने दोस्तों, जाने-पहचाने भोजन और टेलीविजन कार्यक्रमों की याद आती थी।
कुछ साल बाद, हम दिल्ली चले गए। मैंने 11वीं और 12वीं के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय स्कूल में प्रवेश लिया। नए सहपाठियों का साथ, शुरुआती कुछ महीनों के लिए भयानक था। उनके अपने समूह थे, उनके गुट और स्थान। मुझे नहीं पता था कि मैं कहां फिट हूं। मैं काफी हद तक एक सामाजिक व्यक्ति हूं, लेकिन उस अवधि में, मुझे बहुत अकेला महसूस हुआ। धीरे-धीरे मैंने दोस्त बनाए। स्कूल बहुत बढ़िया था, लेकिन घर उबाऊ था। कोलकाता की परिस्थिति के विपरीत, मेरे पास कोई दोस्त नहीं था। यहां पड़ौसी, परिवार या रिश्तेदार थे। मुझे अकेला महसूस होने लगा। मैं दोपहर 2 बजे स्कूल से लौटकर घर पर ही रहती, या तो पढ़ती रहती या बोर होती रहती थी।
यह वो समय था, जब मैंने खुद को खोजना शुरू कर दिया था - और खुद के बारे में उन चीजों को भी, जो कुछ अंधकारमय थीं। मुझे ऐसी परिस्थितियां पसंद नहीं थीं, जो मेरे नियंत्रण में न हों।
मैंने अपने कॉलेज के लिए कनाडा जाने का फैसला किया, क्योंकि मैं नए स्थानों की खोजबीन करने और खुद का अनुभव करना चाहती थी। मैं बहुत सुविधा संपन्न पृष्ठभूमि से आई थी, यहां तक कि मैंने कभी चाय भी नहीं बनाई थी। और फिर भी यहां मैं रसोईघर के साथ एक हॉस्टल में थी और खुद अपना भोजन बना रही थी- भले ही यह पास्ता या सैंडविच ही था। मैं पढ़ाई कर रही थी, सर्द मौसम में 5-6 महीने गुजारना, बर्फ का अनुभव, यह सब मेरे लिए बहुत नया और रोमांचक था। इस बार मुझे यह भी समझने में मदद मिली कि मैं अपने दम पर काम कर सकती हूं। यह सामर्थ्य बढ़ाने वाला था। मैं स्वाधीन हो गई थी।
कॉलेज खत्म होने के बाद, मैं नौकरी तलाशने के लिए दिल्ली आई थी। दिल्ली वह शहर था, जहां मैं बड़ी हुई, लेकिन अब यहां मेरे कोई दोस्त नहीं थे। मुझे लगा कि जैसे मैं यहां की नहीं थी। मैं निराश थी और मैंने खुद को शांत कर लिया। मुझे एक इंटर्नशिप का मौका मिला और काम में मेरी दिलचस्पी बढ़ी। इससे सहयोगियों के साथ संबध बनाने में मुझे सहायता मिली। हालांकि, यहां मैं अन्य हर किसी से छोटी थी और संस्कृति का अंतर भी था, क्योंकि जिस दिल्ली को मैं जानती थी, वह बदल रही थी। अब यहां तड़क-भड़क वाले शॉपिंग सेंटर्स थे, मैकडॉनल्ड्स था... मेरा आस-पड़ोस भी बदल गया था। मैं इस बारे में चिंतित थी कि क्या मैं यहां सामंजस्य बैठा सकूंगी।
कार्यस्थल पर, मेरी टीम मेरा सहारा बन गई। लेकिन यह मुश्किल था। मुझे सामाजिक बनना पड़ा था। कभी-कभी, मुझे फिल्में देखने जाना पड़ता था, जो मुझे पसंद नहीं था। मैं कौन थी इस पर मुझे थोड़ा समझौता करना पड़ता था, लेकिन इसने एक तरह से मदद ही की। धीरे-धीरे, हमने भोजन पर संबंध बनाने शुरू किए। हमने बाहर खाने के लिए नए स्थानों की खोज करना शुरू कर दिया। मेरे सहयोगियों में से मेरी ही तरह एक बंगाली था, - जिससे हमारे बीच नजदीकियां बढ़ने में मदद मिली।
अब मुझे पता चला है कि मैं होम सिकनेस से निपटने के लिए एक तंत्र बनाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन पूरी तरह से नई स्थितियों और अनुभवों में, जो निराशाजनक था।
मैंने आगे और अध्ययन करने का निर्णय लिया और ब्रिटेन चली गई। मैं पहले लंदन जा चुकी थी, लेकिन अब मैं लीसेस्टर में रह रही थी, जहां बड़ी संख्या में भारतीय समुदाय के लोग रहते हैं। लेकिन उनमें से ज्यादातर ब्रिटेन में ही बड़े हुए थे। इसलिए यह मेरे लिए मुश्किल था। मैं इसमें फिट नहीं थी और मेरे पास पहचान का संकट था। इसके विपरीत, मेरी समाजशास्त्र कक्षा में कुछ भारतीय या एशियाई छात्र मुझसे ज्यादा आरामदायक स्थिति में थे।
जहां कहीं भी मैं रही, वहां मैंने एक ऐसा बुलबुला ढूंढने की कोशिश की, जिसमें मैं आरामदायक महसूस कर सकूं। पहली बार दिल्ली में रहना स्कूल के समय हुआ। बाद में, काम के सिलसिले में वहां गई थी। ब्रिटेन और कनाडा में, कॉलेज का समय मेरे लिए शांति क्षेत्र रहा। ये वो स्थान थे, जिनके लिए मैं कह सकती थी, कि मैं यहाँ हूं, सहज हूं और नियंत्रण में हूं।
जब मैं अपनी मास्टर्स डिग्री के बाद दिल्ली लौटी, तो चीजें पहले से बेहतर थीं। इस समय के परिवर्तन इतने ज्यादा परेशानी पैदा करने वाले नहीं थे और मुझे इनसे निपटने के लिए कुछ खास नहीं करना पड़ा। मेरी माँ एक सामाजिक कल्याण समूह चलाती थीं, जिसमें मुझे शामिल किया गया था। मैं अपने पुराने कार्यस्थल पर वापस चली गई, जहां मैंने पहले से ही आरामदायक स्थिति बना ली थी। मैं अब एक पूर्ण समाजशास्त्री थी। मैं पहले से ज्यादा आत्मविश्वास से भरी और ज्यादा शांति में थी।
एक बच्चे के रूप में, यहां से वहां जाना मेरा निर्णय नहीं था। मजबूरीवश बदलाव से मेरे अंदर असंतोष था, हालांकि मैं मानती हूं कि यह मेरे लिए अच्छा था (मैं जानती थी कि दक्षिण अफ्रीका में गृह युद्ध की स्थिति थी और भारत जाना कहीं ज्यादा सुरक्षित था)। जब मेरी शुरुआती नाराजगी खत्म हुई, तब मैंने पाया कि इस कदम से मुझे क्या मिला : परिवार, रिश्तेदार और चचेरे भाई बहिन। अफ्रीका में, मुझे ये अनुभव कभी नहीं मिल पाते ।
अन्य स्थानों पर जाना, मेरे खुद के फैसले थे। जब मैं कनाडा चली गई, तब यह सोचा कि यह मेरा निर्णय है और मैं इसे ज्यादा से ज्यादा सही साबित करना चाहती थी। मैंने लोगों को जानने और उनका सामना करने के लिए और अधिक प्रयास किया।
उम्र के 20वें दशक के मध्य के आसपास, मैं स्थिरता प्राप्त करना चाहती थी। मैं जड़ें जमा लेना चाहती थी। मेरे बचपन के दौरान, मेरे माता-पिता हर कुछ वर्षों में यहां से वहां स्थानांतरित होते रहे, इसलिए मैंने कभी इसका अनुभव नहीं किया था। मैं भारतीय ही थी, लेकिन जब मैं भारत में थी, मुझे एक बाहरी व्यक्ति की तरह महसूस हुआ। मैं एक सामाजिक व्यक्ति हूं इसलिए यह मेरे लिए काफी निराशाजनक था।
जब मैं एक नई जगह में हूं, तो मुझे पता है कि मुझे बहुत सी चीजों से निपटना है, और वे ज्यादातर आंतरिक हैं। नए भोजन, नई संस्कृति और उन लोगों से घिरा होना जिन्हें मैं नहीं जानती, इसने मुझे इतना परेशान नहीं किया। लेकिन आंतरिक रूप से, मैंने यह पता लगाने की कोशिश की कि मैं कौन हूँ।
मैंने अपने अनुभवों के माध्यम से एहसास किया कि आपको इस काम को करने की ज़िम्मेदारी लेनी होगी, या अपने फैसले पर पुनर्विचार करना होगा। मैं इस निष्कर्ष पर आई हूं कि दिन के अंत में, मुझे अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने आसपास के माहौल में बदलाव की अपेक्षा करने के बजाय प्रयास करने की आवश्यकता है।
यह कहानी स्थानांतरण से परे से है। माइग्रेशन पर एक श्रृंखला, और किस प्रकार यह हमारे भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव डालती है। यहां और पढ़ें:
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