"एक अच्छे शिक्षक को अपने अध्ययन के क्षेत्र में शिष्य की रुचि को जगाना आना चाहिए। यह जरुरी है कि वह खुद अध्ययन के क्षेत्र में माहिर हो और उसे क्षेत्र के नवीनतम विकास के बारे में पूरी जानकारी हो। वह खुद ज्ञान की रोमांचक खोज में एक यात्री होना चाहिए" भारतीय राजनेता और दार्शनिक डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का कथन।
निश्चित रूप से डॉ राधाकृष्णन की टिप्पणी मार्गदर्शन के मुद्दे पर लागू होती है। अर्थात, युवाओं का प्रभावी ढंग से मार्गदर्शन करना जिससे वे एक सार्थक और उत्पादक जीवन जी सकें। यह एक ऐसा विषय है जो आजकल सकारात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में ध्यान आकर्षित कर रहा है। वैज्ञानिक सबूतों से पता चला है कि मार्गदर्शन की गतिविधि में शामिल हुए लोगों को काफी लाभ होता है। शोध का ध्यान मार्गदर्शन से मार्गदर्शन पाने वाले लोगों को मिल रहे लाभ (जैसे तकनीकी कौशल सिखाना, कैरियर नेटवर्किंग में मदद करना, और आत्मविश्वास जगाना) से हट कर मार्गदर्शक को मिल रहे इसके मानसिक और यहां तक की शारीरिक लाभ पर केंद्रित हो रहा है।
मनोवैज्ञानिक तौर पर मार्गदर्शन मनोविश्लेषक एरिक एरिकसन की जेनेरेटिविटी की अवधारणा पर आधारित है। इस अवधारणा का परिचय सबसे पहले 1950 में प्रकाशित "चाइल्डहुड एंड सोसाइटी' के द्वारा कराया गया था। इस ऐतिहासिक किताब में एरिकसन ने शैशवावस्था से बुढ़ापे के दौरान मानव विकास के आठ चरणों को प्रस्तुत किया - प्रत्येक चरण व्यक्तिगत विकास के लिए एक विशिष्ट कार्य या चुनौती प्रस्तुत करता है।
उन्होंने मिडलाइफ (मध्य वयस्क) के लम्बे सातवें चरण को जेनेरेटिविटी के साथ जोड़ा। जेनेरेटिविटी का अर्थ है भविष्य की पीढ़ियों के प्रति चिंता और उनका मार्गदर्शन। एरिकसन ने दुनिया भर के अधिकांश वयस्कों के लिए अभिभावकता को जेनेरेटिविटी का मुख्य क्षेत्र बताया। फिर भी उन्होंने एक पैनी दृष्टि से यह तर्क दिया कि सभी माता-पिता अपनी जेनेरेटिविटी की ऊर्जा को अपने बच्चों के लिए समर्पित नहीं करते हैं और जेनेरेटिविटी अभिभावकता के बिना भी संभव है। दूसरे शब्दों में प्रमुख मुद्दा सामाजिक लाभ के लिए युवाओं के साथ सहायक भागीदारी है।
मिडलाइफ (मध्य वयस्क) से जुड़ी चुनौतियाँ और विपत्तियां कई लोकप्रिय किताबों और फिल्मों के विषय बनी जिससे इन विषयों की लोकप्रियता में बढ़ोतरी हुई। इन विषयों से नए शोध भी उत्पन्न हुए। उदाहरण के लिए एन आर्बर में मिशिगन विश्वविद्यालय के पूर्व जेसुइट सेमिनेरियन डॉ जॉन कोत्रे ने जेनेरेटिविटी के चार प्रकार की पहचान करके एरिकसन के काम को विस्तृत किया। इनमे शामिल हैं: 1) जैविक, जिसमें अपने शिशु को जनना और उसका पोषण करना शामिल है; 2) अभिभावकीय, इसमें बाल अनुशासन और परिवार की परंपराओं का प्रसारण शामिल है; 3) तकनीकी, इसमें व्यावहारिक कौशल सीखना शामिल है; और 4) सांस्कृतिक, इसमें विशेष संस्कृति द्वारा माने गए बेशकीमती मूल्य जैसे स्वायत्तता या धार्मिकता का प्रसार करना शामिल है। कोत्रे ने एरिकसन की कुछ मान्यताओं पर भी सवाल उठाया जैसे कि क्या जेनेरेटिविटी से जुड़े आवेग सिर्फ मिडलाइफ (मध्य वयस्क) तक ही सीमित है? दरअसल कुछ मनोवैज्ञानिक आज यह तर्क देते हैं कि किशोर भी अपने कौशल को अपने से छोटे बच्चों के साथ साझा करने में आनंद लेते हैं - और ऐसा करके इसका लाभ उठा सकते हैं।
हाल ही में नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के डॉ डैन मैकएडम्स और उनके सहयोगियों ने इस बात की जांच की है कि मिडलाइफ (मध्य वयस्क) वर्ग के लोगों में जेनेरेटिविटी की मात्रा एक दूसरे से भिन्न क्यों हैं। जबकि कुछ पुरुष और महिलाएं उत्सुकता से युवा व्यक्तियों का अनौपचारिक या संगठनात्मक रूप से पोषण करते हैं, दूसरे लोग मार्गदर्शन करने में रूचि नहीं रखते हैं या यहां तक इसके प्रति शत्रुतापूर्ण नजरिया रखते हैं। वे युवा शिक्षार्थियों या अनुभवहीन लोगों के लिए समय और ऊर्जा समर्पित करने के बजाय टीवी शो या स्पोर्ट्स मैच देखना पसंद करते हैं।
इस तरह के ध्यान आकर्षित करने वाले मतभेदों का क्या कारण है? जैसा कि आप संदेह कर सकते हैं बहुत हद्द तक इसका सम्बन्ध वयस्कता के दौरान चुने गए हमारे रोल-मॉडल से है। यदि हम इतने भाग्यशाली हैं कि हमारे पास सामाजिक रूप से जुड़े माता-पिता के साथ-साथ प्रेरणादायक शिक्षक और व्यक्तिगत मार्गदर्शक हैं, तो हमारे व्यसक जीवन में जेनेरेटिविटी को अपनाने की सम्भावना बढ़ जाती है। निश्चित रूप से यह मेरे लिए सही है क्योंकि मेरे माता-पिता समर्पित स्कूल-शिक्षक थे जो दुनिया को बेहतर बनाना चाहते थे। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जिन लोगों में जेनेरेटिविटी की मात्रा ज्यादा है वे लोग नागरिक, राजनीतिक और धार्मिक गतिविधियों में ज्यादा शामिल होते हैं। माता-पिता के रूप में वे अपनी जिम्मेदारी के तौर पर मूल्यों और ज्ञान को प्रदान करने के महत्व पर जोर देते हैं और अपने सामाजिक रूप से अलग-थलग रहने वाले समकालीनों की तुलना में ज्यादा खुश रहते हैं। यह एक काफी अच्छा संयोजन है!
मार्गदर्शन करने की शुरुआत के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण रखना महत्वपूर्ण है। लेकिन आपकी प्रभावशीलता को अधिकतम करने के लिए इन दिशानिर्देशों का पालन करना भी सहायक साबित होता है। 1) एक ऐसी गतिविधि चुनें जो वास्तव में आपके व्यक्तिगत रुचियों को दर्शाती है, चाहे वह पेशेवर हो या न हो। यह अक्रियाशीलता (बर्नआउट) को कम करने में मदद करेगा। 2) यथार्थवादी दृष्टिकोण रखें। कोई भी रिश्ता परिपूर्ण नहीं होता है इसलिए आप अपने और शिष्य के बीच कभी-कभार झगड़े होने की उम्मीद रखें। 3) अपने शिष्य के विकास के लिए निर्भरता के बजाय आत्म-निर्णय लेने को बढ़ावा दें। 4) एक सक्रिय श्रोता बनें। अपने शिष्य को काम में नए विचारों और तरीकों को पेश करने की अनुमति दें। इससे आप दोनों को लाभ होगा।
डॉ एडवर्ड हॉफमैन न्यूयॉर्क शहर के येशिवा विश्वविद्यालय में एक सहायक सहयोगी मनोविज्ञान प्रोफेसर हैं। निजी अभ्यास में एक लाइसेंस प्राप्त नैदानिक मनोवैज्ञानिक, वह मनोविज्ञान और संबंधित क्षेत्रों में 25 से अधिक किताबों के लेखक / संपादक हैं। डॉ हॉफमैन ने डॉ विलियम कॉम्प्टन के साथ 'पॉजिटिव साइकोलॉजी: द साइंस ऑफ हैप्पीनेस एंड फ्लोरिशिंग' नामक किताब लिखी हैं, और इंडियन जर्नल ऑफ पॉजिटिव साइकोलॉजी और जर्नल ऑफ ह्यूमनिस्ट साइकोलॉजी के संपादकीय बोर्डों में कार्य करते हैं। आप उन्हें columns@whiteswanfoundation.org पर लिख सकते हैं।