मेरी मां के संपूर्ण जगत के साथ जूझना

मेरी मां के संपूर्ण जगत के साथ जूझना

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मेरी मां को उसकी बीमारी जहां कहीं भी ले गई थी, उससे पहले के समय को फिर से सोचना अजीब है और बहुत आसान नहीं है। इसमें से बहुत कुछ भूलना जरूरी है, लेकिन यह याद रखना भी अच्छा है, क्योंकि बहुत कुछ ऐसा है जिसे मैंने इन सभी के माध्यम से जीना सीख लिया। ज्यादा महत्वपूर्ण बातों में से एक, मैं यह मानती हूं वह यह कि तंदुरुस्ती और मानसिक स्वास्थ्य बहुत कम समझ में आते हैं,  और यह कि मैं खुद भी इसके बारे में बहुत कम समझती हूं।

2014 की शुरुआत में,  मैं कुछ महीने दूर रहने के बाद घर लौट आयी थी, यह जानकर कि मेरी मां वास्तविकता से दूर होकर अपनी आंखों से शून्य में ताकती रहती थीं। तब तक वह कुछ समय के लिए पहुंच से बाहर होती थीं, लेकिन मैं इसे कोमलता पूर्वक उपेक्षा के साथ नजरअंदाज कर देती थी, क्योंकि मुझे वास्तव में नहीं पता था कि क्या करना है, और यह विश्वास करने को तैयार नहीं थी कि यह उसकी दीन-हीनता से कहीं ज्यादा ही था। लेकिन इस बार, यह गंभीर लग रहा था। उसके तुरंत बाद जांच कराने पर उनके सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित होने का पता चला।

जहां उनकी बीमारी उन्हें ले गई थी, अब वह वहां से वापस आ गई हैं। इलाज का उन पर अच्छा असर हुआ है,  और अच्छी तरह से और क्रियाशील हैं, लेकिन मुझे पता है कि सिर्फ एक साल पहले ही, ऐसा कुछ डरावना था जैसा मुझे फिर कभी नहीं होगा। मुझे याद है उस इंसान के साथ जीने की घबराहट जो किसी अन्य वास्तविकता और ब्रह्मांड में था।

मेरी उम्र के पूरे बीसवें दशक के लिए, और अब मैं 29 हूं, जब भी मैंने अपनी मां के बारे में सोचा, तब मुझे अपने भीतर लाचारी की भावना मिली। जब मैं 24 साल की थी तभी से मेरी माँ मेरे साथ रह रही थीं। इससे पहले, वह एक नहीं, बल्कि दो-दो अपमानजनक विवाहों से गुजर चुकी थीं। उस समय के दौरान, उनकी आत्मा उन्हें कचोटती थी। एकमात्र बच्चा होने और पारिवारिक सहारे के बिना, मैंने उन्हें अपने साथ रखने का निश्चय किया, इस उम्मीद में कि वह बेहतर महसूस करेंगी। लेकिन मेरे साथ रहने से उनकी स्थिति में बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ।

मैं कभी नहीं समझ पाई कि उसके साथ क्या हुआ और क्यों हुआ था। हमारे परिवार में होने वाली हिंसा ने निश्चित रूप से उसकी लुप्त होती याददाश्त में योगदान दिया था। लेकिन फिर भी, मैं कभी भी संतोषजनक ढंग से समझा नहीं सकती कि उनका व्यवहार ऐसा क्यों हो गया था।

मेरी मां एक सौम्य और देखभाल करने वाली व्यक्ति  से अभद्र, रूखी और अपने आसपास की दुनिया के प्रति उदासीन हो गई थी। वह अपने आस-पास के माहौल से हमेशा अलग-थलग सी थी। चूंकि मेरी नौकरी ऐसी थी जो हम दोनों के लिए सहायक थी, इसलिए हमेशा इस पर ध्यान देने की वहां पर्याप्त व्यावहारिकताएं थीं, जिससे मुझे अपने गहरे भ्रम को दूर करने में मदद मिली। अगर वह हमारे घर की चीजों की देखभाल नहीं करती है, तो मैंने खुद को समझाया कि माताओं को हमेशा माँ होने की जरूरत नहीं होती, इसे ऐसे ही रहने दो। अगर मुझे बकाया बिल पड़े मिल जाते, या बचा-खुचा लंबे समय से रखा खाना मिलता, तो मैं डिप्रेशन शब्द का प्रयोग करते हुए बिलों का भुगतान कर देती और भोजन को फेंक देती थी। दिनोंदिन उन चीजों की सूची बढ़ती गई, जिनमें वह सम्मिलित नहीं होती थीं। मैं उस अस्पष्ट चिंता के साथ रहती थी कि यहां एक ऐसा व्यक्ति  है, जिसकी उपस्थिति भूत-प्रेत की तरह है, और मैं उसे सिर्फ उसके आस-पास के परिवेश के साथ जीने का आग्रह नहीं कर सकती थी। वह एक प्रकार के ऑटो-पायलट मोड में थी, और पहुंच से बाहर ही रहती थी।

लेकिन जैसे-जैसे साल बीतते गए,  मुझ में कई तरह से गहरा दुख भरने लगा। मैंने इस विचार के साथ समझौता करने की कोशिश की कि जिस मां को मैं जानती थी, उसे मैंने खो दिया है। हम अब पूरी तरह तालमेल से बाहर थे। यह अपने आप में असामान्य था, क्योंकि मेरी मां और मेरे बीच सबसे करीबी संबंध रह चुके थे। हमारा घर था, यह सुनिश्चित करने के लिए मैंने जो कुछ हो सकता था किया। लेकिन उन वर्षों में मैंने खुद को थका हुआ पाया। मैं यह सोचने लगी थी कि मैंने जो कुछ भी किया वह पर्याप्त नहीं था, और निरंतर निरर्थकता की भावना के साथ रहने लगी। दु:ख अब गुस्से और कड़वाहट में तब्दील हो गया,  अंदर भरा गुस्सा बाहर भी आने लगा। मैं दूसरी ओर ध्यान लगाने की कोशिश करने लगी, और अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं पर पकड़ खोने लगी। मैं एक ऐसे जीवन की कल्पना नहीं कर सकती थी, जहां मैं उसे अपने साथ ले जा सकूं, लेकिन ना ही मैं इस तरह से रह सकती थी जहां वह मेरी साथ तो थी, लेकिन अनुपस्थित थी।

आखिरकार, जिस शहर से मैं प्यार करती थी, और जहां अपना जीवन बनाया, उसे मैंने छोड़ दिया और उसे उस शहर में ले गई जिसे वो जानती थी- मेरा गृहनगर,  जहां मुझे आशा थी कि वह बेहतर महसूस करेगी मुझे आशा थी कि अपने शहर का मेलजोल उसे जीवन में वापस आने में मदद करेगा।

इस बदलाव से भी स्थितियां नहीं बदलीं। इसने कुंठा को और बढ़ा दिया। मैं टूट रही थी, और मैंने एक दिन फैसला किया कि जब मैं इस स्थिति में इतनी बेअसर हूं, तो  मुझे एक विराम लेने की जरूरत है। मेरी मां की देखभाल को सुनिश्चित करने मुझे पैसे कमाना और काम करना था, इसलिए मैं बाहर चली गई। उसके हर दिन के दबाव से बचने और उससे दूर जाने के लिए मैंने कुछ महीने निकाल ही लिए।

मैं कुछ महीने बाद घर लौटी तो अधिकतर चीजों को खतरनाक स्थिति से अव्यवस्थित पाया। घर धूल से भरा था। ज्यादातर समय मेरी मां और मेरे बीच बातचीत नहीं होती थी। मुझे नहीं पता था कि उस दौरान उसने क्या किया, और इस बारे में वह बताती भी नहीं। जब मैं घर आई, मेरी मां ने मेरी ओर देखा और कुछ पल के लिए अपनी टकटकी को कम करते हुए कहा कि उसकी बेटी कहीं दूर चली गई है।  

अपने को पराया व्यक्ति बताए जाने पर हुई अजीब सनसनी के बारे में मैंने अपने कई दोस्तों को बताया। मैं उससे कहती, मैं आपकी बेटी हूं अम्मा, लेकिन वह मुझे घृणा से देखती। किसी के पास इसके लिए वास्तव में कोई स्पष्टीकरण नहीं था, और मैं इस बारे में गहराई से जांच करने के बजाय चुप और असहज हो गई। मैं नहीं जानती थी कि मेरे बारे में उसके संदेह को कैसे दूर किया जाए। वह कैसे सोच सकती थी कि मैं उसकी बेटी नहीं हूं? वह क्यों नहीं पहचान पा रही थी, इसका मैं एक भी कारण नहीं सोच पा रही थी।

इसके तुरंत बाद, एक रात, मैंने देखा कि मेरी मां शारीरिक रूप से हिंसक हो जाती है। कुछ ऐसा था, जिस पर वह नियंत्रण नहीं कर सकी। यह अब मुझे आश्चर्यचकित करता है कि मैं नहीं जान सकी कि यह संभवत: क्या हो सकता है या उसके साथ क्या हो रहा है। मैंने सभी तरह के अनुमान लगा लिए थे। मैं क्या कर सकती थी, और मेरी माँ के साथ यह क्या हो रहा था?

शायद इसी हिंसा ने मुझे यह एहसास कराया कि ऐसा कुछ था जिसके लिए उसे सहायता की जरूरत थी; मुझे सहायता की जरूरत थी। यह मेरी ही गलती थी कि जब मैंने कईयों बार उसकी बैचेनी में बड़बड़ाहट और उसके कामों नजरअंदाज किया या उसकी उपेक्षा की। और अंत में, शायद बहुत देर हो चुकी थी, जब मैंने उसकी चिकित्सकीय देखभाल का फैसला किया।

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दो- भागों की श्रृंखला का पहला भाग, जिसमें एक बेटी द्वारा उसकी मां के स्किज़ोफ़्रेनिया के निदान से पहले की मानसिक बीमारी का जिक्र किया गया था। दूसरे भाग को यहां पढ़ें 

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