मर्दानगी की सामाजिक धारणा पुरुषों को भावनात्मक अनुभवों से दूर कर देते हैं

मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जब भी हम बात करते हैं, तो हम कमजोर आबादी पर ध्यान केंद्रित करते हैं। महिलाएं, दिव्यांग लोग, विचित्रकामी, वंचित समुदायों और अन्य अल्पसंख्यक आबादी मानसिक स्वास्थ्य मामलों में कमजोर वर्ग है, एवं ऐसे मामलों की रिपोर्ट करने वाले कई अध्ययनों में पुरुषों की तुलना में इन लोगों में मानसिक समस्या दो से दस गुना अधिक होने का पता चलता हैं।

मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के जैविक कारणों को छोड़कर, मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं एक दमनकारी समाज का सामना करने से होती हैं, जो पितृसत्तात्मक और विभाजक होने के कारण पासा सिर्फ पुरुषों के पक्ष में ही पड़ता है। भूमिकाएं और मिलने वाली वाहवाही भी बहुत विशिष्ट हैं, जिसमें शीर्ष पर पुरुष रहते हैं, संसाधनों और अवसरों पर अधिक नियंत्रण के कारण उन्हें काफी फायदा मिलता है। अक्सर इस तरह के एक सिस्टम के इर्दगिर्द और इसके खिलाफ काम करना मुश्किल होता है, और यह कमजोर आबादी को थका हुआ, भयभीत, चिंतित और निराश बना देता है। यह वह जगह है जहां से मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की शुरुआत होती है।

'मर्द' की धारणा

इन तर्कों में पौराणिक पुरुष, विषमलैंगिक, सक्षम शरीर वाला, ताकतवर, शिक्षित, और एक प्रमुख समुदाय से है, लेकिन इन पहचानों में से कुछ के बिना भी, दमनकारी के रूप में पुरुष की धारणा एक मजबूत कथानक है।

भले ही सामाजिक मानदंड पुरुषों के पक्ष में हैं, लेकिन पुरुष मानसिक स्वास्थ्य के समस्याओं से मुक्त नहीं हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अक्सर वे पितृसत्ता की ऊंची उम्मीदों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं, और उस प्रक्रिया में,  स्वयं की विशिष्टता के लिए सच साबित नहीं हो पाते हैं।

हाल के वर्षों में, 'अल्फा' पुरुषों और अन्य दूसरे, 'बीटा' पुरुषों ने हिंसक आतंकवादी हमलों की घटनाओं के बाद विशेष रूप से ध्यान खींचा है। टिप्पणी इस बात पर केंद्रित है कि बीटा पुरुषों को कैसे अमान्य महसूस होता है और सिस्टम द्वारा उन्हें उत्पीड़ित किया जाता है जो केवल अल्फा को पुरस्कृत करता है, और उन्हें विशेष रूप से यौन भागीदारी और अवसरों से असाधारण रूप से वंचित कर देता है। यह निराशा, कमजोर प्रतिद्वंद्वियों के कौशल और हिंसा के साधनों तक आसान पहुंच के साथ-साथ एक ऐसी परिस्थिति बनाती है जहां अस्वीकार किये जाने का निरंतर अनुभव और शक्तिहीनता की भावनाएं उन्हें हिंसक और गुस्सैल बना सकती हैं। तथाकथित अल्फा पुरुषों के लिए भी, निरंतर पूर्णता की उम्मीद, प्रतिस्पर्धा की धारणा और प्रशंसा की निरंतर आवश्यकता उनके लिए मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की परिस्थिति बना देती है।

पितृसत्ता में कोई विजेता नहीं हैं

जबकि पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं, विचित्रकामी और अन्य को असमान रूप से प्रभावित करता है, लेकिन पुरुषों को भी इससे बचाया नहीं जा सकता है। पुरुष होने का मापदंड काफी कठोर है, और यह सख्त व अनिश्चित नियमों के साथ आता है, खासकर जब मानसिक स्वास्थ्य की बात हो।

ऐसा कोई भी पितृसत्तात्मक समाज नहीं है जिसमें निम्नलिखित नियम न हो। कड़े नियमों में से कुछ ये हैं:

• कमजोर मत बनो, 'मजबूत' होना मर्दानगी का प्रतीक है

• मर्द रोते नहीं: भावनात्मक रूप से अभिव्यक्ति करना नामर्दगी है; पुरुषों को केवल क्रोध करने की अनुमति है

• कार्य करें: संघर्ष से मर्द बनता है। पुरुषों को तार्किक, शांत और तर्कसंगत होना चाहिए

• मर्द भावनाएं साझा नहीं करते हैं: भावनाओं के बारे में बात करना नामर्दी है

• प्यारे मत बनो: गंभीर होने के नाते, आगे चलकर मजबूत बनोगे

इन सभी अस्पष्ट नियमों के साथ फिट बैठने के लिए, समाज में पुरुषों को अपनी भावनाओं और इच्छाओं को नकारने के लिए तैयार किया जाता है। उनके स्नेह और प्यार की भावनाओं को रूखेपन की ओर मोड़ दिया जाता है।  विस्तारित काम और कठोर आदतें ताकत का एक मुखौटा तैयार करती हैं, जो वास्तविक भावनाओं को छिपाकर एक खोखला और कठोर व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है।


धौंस जमाकर मर्दानगी का बचाव किया जाता है

अक्सर टकराव की स्थितियों में मर्दानगी का व्यवहार अच्छी तरह से काम नहीं करता है। ऐसी किसी भी स्थिति में परिणाम विस्फोटक हिंसा के रूप में सामने आता है, जो भंगुर और खोखली मर्दानगी को चीर कर रख देने का सामर्थ्य रखती है और जो कमजोर, मोहताज और लालसा रखने वाले आदमी की वास्तविकता का पर्दाफाश कर देती है। महिलाओं, कमजोर लोगों और उदारवादी लोगों को धमकाना इसमें शामिल है।

मर्दानगी की धारणा को विनष्ट करने की अन्य सम्भावनायें, जैसे कि अधिक कोमल पुरुषों या समलैंगिक पुरुषों को अक्सर इस तरह की हिंसा का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, सिंगापुर के एक अध्ययन में पाया गया कि जिन बच्चों को 'मर्द बनने' के लिए कहा जाता है उनमें धौंस जमाने की संभावना चार गुना थी। यह खुद को मजबूत होने के रूप में चित्रित करना है, जो धौंस जमाने वाला दोषपूर्ण त्रिभुज तैयार करता है।

उबेर माचो या सर्वोत्तम पुरुषों द्वारा धमकाना अक्सर उनकी मर्दानगी के व्यवहार पर चोट के परिणामस्वरूप सामने आता है। चाहे वह स्कूल ग्राउंड पर दी जाने वाली धमकी हो जो उन 'अव्यवस्थित' और 'बेवकूफ़' डरपोक लोगों को हिलाकर रख देती है, जो समलैंगिकों लोगों के प्रति हिंसक है।

अगर कोई स्थान और साधन हो सकते हैं जहां लोग अपनी खुद की नजाकत की जांच कर सकें, तो क्या अपनी मर्दानगी को ज़ाहिर करने की भावना में कमी आ सकती है? क्या कमज़ोर वर्ग पर धौंस जमाना तब भी उतना ही प्रचलित होगा?

कमजोरी के रूप में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं

कठोर पितृसत्ता के मूल्य निर्धारण से पैदा होने वाली एक त्रासदी के रूप में पुरुष उनकी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की वास्तविकता से इनकार करते हैं, विशेष रूप से उनके लिए जो लोग अपने अल्फा होने का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने के लिए मर्दानगी का व्यवहार प्रदर्शित करना चाहते हैं। मर्दानगी का विचार पुरुषों को उनके भावनात्मक अनुभवों से संबंध विच्छेद करने के लिए प्रेरित करता है। जबकि अन्य लोग अपनी चिंताओं, मनोदशा और विचारों का अधिक स्वतंत्र रूप से सामना कर सकते हैं। अपनी मर्दानगी का दिखावा करने वाले पुरुष इसे कमजोरी के रूप में स्वीकार करते हुए देखेंगे, और इसे छिपाने, अस्वीकार करने या उससे निपटने के लिए कड़ी मेहनत करेंगे।

नतीजतन, अधिकतर पुरुष हिंसक होते हैं क्योंकि केवल क्रोधी होने को मर्दानगी के रूप में देखा जाता है। ऐसे पुरुष खुद को खत्म कर लेते हैं क्योंकि उनके लिए विफलता एक विकल्प नहीं है और क्योंकि वे स्वयं को अपने प्रभाव के चक्र के लिए पूरी तरह जिम्मेदार मानते हैं। अधिकतर पुरुष कभी भी मदद तलाशे बिना अपने निजी मानसिक नरक में पड़े रहते हैं और पीड़ित होते रहते हैं।

क्या होता यदि हम लिंग-मुक्त दुनिया में रहते?

पितृसत्ता की बीमारियों के बारे में जागरूकता के साथ, दुनिया भर में उदार समाज लैंगिक रूढ़िवादिता को तोड़ने, लिंग समानता की सामाजिक शिक्षा में निवेश, लैंगिक पहचान में सहानुभूति,  करुणा और समझ के मूल्यों में निवेश करने के लिए बहुत कुछ कर रहे हैं। यूरोप, कनाडा और अन्य जगहों पर विशेष रूप से वहां के स्कूल सिस्टम में प्राथमिक शिक्षा की शुरुआत से ही पितृसत्ता को खत्म करने के लिए इस लाइन पर काम किया जा रहा है। इन देशों में कानूनी व्यवस्था भी समानता और गैर-भेदभाव की तरफ बढ़ी है, साथ ही अधिक से अधिक कानून तटस्थ लिंग आधारित बन रहे हैं।

शुरुआती नतीजे बताते हैं कि युवाओं के बीच, लिंग और समुदायों के बीच मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं में व्यापक अंतर पैदा हो गया है, इस तरह के हस्तक्षेप के बाद से इनमें काफी कमी आई है।

एक और कट्टरपंथी दृष्टिकोण यह है कि लिंगभेद को सामाजिक सर्कल में पूरी तरह से नष्ट करने का प्रयास हो। क्या होगा यदि लोगों को लिंग के बारे में ज्यादा परवाह न रहे? क्या होगा अगर समाज में कोई लैंगिक कोडिंग न हो - कोई गुलाबी / नीला रंग पृथक्करण, न ही कपड़ों / मेकअप में मतभेद, और न ही हेयर स्टाइल / फुटवियर में अंतर हो? क्या होगा अगर भावना या विचार या व्यवहार के संचार में किसी तरह की बाधा न रहे?

एक ऐसा समाज जहां लिंग का विचार पूरी तरह से लचीला हो और पहचान गठन के लिए महत्त्वहीन हो, क्या उसमें मानसिक मानसिक समस्याएं कम होंगी? क्या यौन हिंसा, गिरोह संबंधित मुद्दों आदि जैसे सामाजिक मुद्दों में कमी होंगे?

हाल के दिनों में, कुछ समाज पूरी तरह पहचान के मुख्य पहलू के रूप में लिंग की अवधारणा को दूर करने के विचार पर प्रयोग कर रहे हैं। कुछ स्कैंडिनेवियाई देशों में  लिंग-तटस्थ शब्दावली, नामकरण और स्कूली शिक्षा के लिए एक आंदोलन चल रहा है। क्या वास्तव में इसमें बदलाव आएगा कि लिंग स्पेक्ट्रम में लोग किस तरह अपने को पहचानते हैं  और क्या यह वास्तव में लिंग की दीवारों को तोड़ देगा और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से सीधे संबंधित होने वाले व्यवस्थित मुद्दों को तोड़ देगा - जो कि देखा जाना बाकी है।

संदर्भ:

1. अल्फा-बीटा पदानुक्रम प्रचार:  http://tobealpha.com/what-is-a-beta-male/ 

2. पितृसत्ता के नियम : http://www.christoscenter.com/14-rules-of-the-dark-patriarchy/

3. मर्दानगी सिखाने के लिए धमकाना: https://www.straitstimes.com/singapore/boys-told-to-man-up-by-peers-are-4-times-more-likely-to-bully-others-survey

4. भारत में पुरुषों की आत्महत्या: https://thewire.in/culture/reporters-diary-male-suicides-india

5. सहानुभूति और पितृसत्ता: https://medium.com/gender-theory/the-importance-of-empathy-4af141e53983   

6. लिंग मुक्त स्कूली शिक्षा प्रयोग: https://www.thegospelcoalition.org/blogs/trevin-wax/no-more-gender-a-look-into-swedens-social-experiment/         

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