जब वास्तविक शरीरों को अवास्तविक आदर्शों में फिट किया जाता है
जब आप चालीस की उम्र पार करते हैं, तो पहली चीज जो आपका ध्यान खींचती है वो यह है कि आप एक अदृश्य महिला में बदल रहे हैं। भीड़ में लोग आपको पीछे छोड़ देते हैं। विक्रेता आपको समय नहीं देना चाहते हैं। वार्तालापों में आपकी बात काट दी जाती है। अजीब बात है क्योंकि आईने में आप खुद को और ज्यादा नज़र आते हैं। कमर पर चर्बी ऐसे जम जाती है जैसे कोई मुलायम और नरम सी जेली हो। कूल्हों की त्वचा संतरे के छिलकों जैसी सिलवटों से भर जाती है। सिर हिलाकर ना बोलने के बाद भी, कई देर तक जबड़े पर जमी दोहरी परत हिलती रहती है, जैसे अस्वीकृति जाहिर कर रही हो।
जब मैंने 45 की उम्र पार की, तो मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरी आवाज़ दूसरों के कानो तक पहुँचने के लिए अपने आप तेज होने लगी थी और मेकअप लगाते वक़्त मेरे हाथों को पहले से कहीं अधिक मेहनत करनी पड़ रही थी। कान खराब हो रहे हैं, मैंने खुद से कहा। दृष्टि भी कमजोर होने लगी थी। चलिए ठीक है, सच कहूं तो सभी अंगों में जंग लग चुका था। और स्तन, वो तो इतने दूर जा चुके थे की अब उन्हें अपनी यात्रा के लिए वीसा और पासपोर्ट की जरुरत थी।
मैं अकेली नहीं थी। मेरे चारों ओर महिलाएं जो अपनी चालीसी में है, अपने शरीर और शरीर की छवि को वापस पाने की कड़ी मेहनत कर रही हैं। यह एक निरंतर प्रक्रिया है, और जो तीक्ष्ण आँख हमे घूर रही है वह हमारी अपनी है।
वास्तव में मेरा अपने शरीर के साथ रिश्ता कभी सहज रहा ही नहीं। जब मैं किशोरावस्था में थी, तब खाने पर रोक लगा के खुद के 17 साल की उम्र के सुडौल शरीर को पतला बनाने की कोशिश में जुटी हुई थी, इस कोशिश में कि कहीं इतनी पतली हो जाऊँ जितना की हर लड़की होना चाहती है। और फिर एक ऐसा समय भी आया जब मेरे सिर के बाल कम होने लगे और मेरी ठोड़ी के बाल बढ़ने लगे। गर्भावस्था के बाद मेरे पेट ने ज़िद पकड़ ली और दोबारा सुडौल होने से इनकार कर दिया, और यह सोच के मुझे बड़ा दुःख हुआ कि मेरा पेट कभी समतल नहीं हो पायेगा। यह धारणा की मेरा शरीर कैसा होना चाहिए और मेरे शरीर की धारणा की उसे कैसा होना चाहिए, इन दोनों के बीच जम कर लड़ाईयाँ हुई हैं। मुझे अब एहसास होता है कि मेरे पास जो भी था मैं अक्सर उसकी सराहना करने में असफल रही। मेरे पास एक स्वस्थ कार्यात्मक शरीर था, और हाँ थोड़ी बहुत इधर-उधर की चर्बी जायज़ थी।
मेरे शरीर के बारे में झनझना देने वाला पल वो था जब मैंने खुद की पहली झलक देखी, असल में गर्भावस्था के बाद मेरे पिचके हुए उदर की झलक। मुझे याद है कि एक बार चलने लायक होने के बाद, किस तरह मैं कांपते हुए बाथरूम तक पहुंची और मेरी नज़र मेरे पिचके हुए उदर पर गिरी, तो ऐसा लगा जैसे सिलवटों से भरी जमीं पर एक पिचका हुआ पैराशूट पड़ा हो। सब आपको मातृत्व की महिमा के बारे में बताएँगे, पर कोई ये नहीं बताता कि गर्भावस्था के बाद आपका शरीर आपको चौंका सकता है। विशेष रूप से इस ज़माने में, जब फ़ोटोशॉप और टम्मी टकर का दौर सी-सेक्शन के साथ मिलता है, जहाँ हस्तियां एक हाथ में नवजात शिशु के साथ अस्पताल से निकलती हैं और दूसरे हाथ को अपने कूल्हे के बगल में रख कर अपने एब्बस को तस्वीरों के लिए प्रदर्शित करती है। आपको लगेगा जैसे की उनके बच्चे उनसे वेलक्रो से चिपके हुए थे जिन्हे अब खींचकर अलग कर दिया गया है। लेकिन निश्चित रूप से, गर्भावस्था के बाद एक परफेक्ट शरीर के लिए समझदारी से खाया और व्यायाम किया गया है, जो की एक सामान्य महिला के लिए बिना किसी सहायता और विशेषज्ञ की सलाह के बहुत मुश्किल है। गर्भावस्था के बाद पहले से ही कुछ महिलाओं को अवसाद से झूंझना पड़ता है, और इसके साथ ही शारीरिक छवि के मुद्दे उनके संघर्ष को और अधिक बढ़ा देते हैं।
अगर सहजता से कहे तो बच्चे के बाद का दौर एक झमेला है। पर सृजन की इस प्रक्रिया के बाद का दौर, अपने आप में सुन्दर भी है। जहाँ कभी एक चिकना झुर्रियों रहित पेट था, अब वहाँ स्ट्रेच मार्कस भरे हुए हैं, बच्चे के बढ़ने के साथ जहाँ त्वचा भी फ़ैल चुकी थी, वो अब एक थैले की तरह लटक चुकी थी। स्तन अचानक से ऐसे पिचक जाते है मानो की जैसे बिना किसी गौरव के गुरुत्वाकर्षण के साथ कोई लड़ाई हार चुके हो।
एक दोस्त ने मुझे एक ऐसे दोस्त के बारे में बताया जिसने दूसरा बच्चा होने के बाद ट्यूब टायिंग की प्रक्रिया के साथ लटकते हुए पेट को “टमी टक” के साहारे सिकोड़ लिया। "इसे कहते है योजना। और अब वह वैसी ही लगती है जैसी वो अपने पहले बच्चे के होने के पहले लगा करती थी।" एक और महिला ने अपने पेट पर खिंचाव के निशान और लेज़र से उन्हें हटाने की प्रक्रिया के बारे में बात की। "मुझे सिर्फ एक ही बात की चिंता रहती थी कि जब भी मैं साड़ी पहनू, मेरे खिंचाव के निशान कहीं नज़र न आये।" एक तीसरी महिला सेल्युलाईट के जमने के निशान को हटाने के लिए प्रक्रियाओं की एक श्रृंखला के लिए पैसे बचा रही थी। उसने सभी तरह के खाने की रोक और व्यायाम की कोशिश कर ली पर उसके पेट और कूल्हों पर से चर्बी उतरी ही नहीं, और उसने अपने लिए जो एक आदर्श छवि बनायीं थी, वैसी वो नहीं बन पायी।
चालीस की उम्र में किसी की अपने शरीर के प्रति इतनी नकारात्मकता भावना, हमारे आस-पास के लोगों के समान दृष्टिकोण से भी प्रभावित होती है। अगर हमारे आस-पास के लोग अपने शरीर के प्रति असंतोष की भावना जताते हैं और उस भावना को मजबूत करते हैं, तो हम भी ऐसा ही कुछ व्यक्त करना शुरू कर सकते हैं क्योंकि स्वयं को छोटा दिखाना मानक बन जाता है और फिर ये एक आदत बन जाती है।
ऐसा दिखने की आशा में जैसे की हम अंतरिक्ष और समय में जम चुके हैं और किसी से भी हमारे शरीर में कोई बदलाव नहीं आ सकता, अक्सर आत्म-सम्मान सम्बन्धी समस्याएं, अवसाद और हां, कई विकारों का कारण बन सकता है। ये विकार कई तरह के हो सकते हैं: खाने से सम्बन्धी या ऐसे जिसमे ऐसी चिकित्सा प्रक्रियाओं की एक लत हो जाती है जिससे बढ़ती उम्र को छुपाया जा सके और शरीर में हो रहे परिवर्तनों से निपटा जा सके। कुछ महिलाएं 40 की उम्र पार करते ही खाने के विकार की शिकार हो जाती है जिससे वे इतनी पतली हो सकें जितना की मान्य है। और कुछ वापस उस विकार का शिकार हो जाती है जिससे उन्होंने किशोरावस्था में संघर्ष किया था। जो हम समझ नहीं पाते वो ये है कि एक नवयुवती के जैसे पतलेपन को एक बड़ी उम्र वाली महिला नहीं पा सकती क्यूँकि उनका शरीर कई तरह के चयापचय प्रक्रियाओं और हार्मोनल परिवर्तनों से गुज़रता है।
जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, हमारे चयापचय की प्रक्रिया धीमी पड़ने लग जाती है और हमारे मांसपेशियों की टोनिंग कम होने लगती है। उच्च चयापचय की तरह मांसपेशियों का टोन भी हमारी कैलोरी को जलाने में मदद करता है। एक ही समान वजन घटाने के लिए पहले से ज्यादा समय लगने लगता है। पहले अच्छे दिखने के लिए ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता था, पर अब उतना ही अच्छा दिखने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है। इस अतिसंवेदनशील, जवानी पूजने वाली संस्कृति में, जो मध्य आयु पार कर लेता है, वो पतले और सुडौल के असमंजस में खतरनाक रूप से घूमने लगता है और कई तरह के राक्षसों से संघर्ष करना पड़ता है। वालिस सिम्पसन ने कहा, "कभी भी कोई बहुत समृद्ध या बहुत पतला नहीं हो सकता है, लेकिन पतले होने का दबाव अधिकांश महिलाओं को आहार और फिटनेस की दिनचर्या की तलाश करने के लिए मजबूर करता है जो कभी-कभी बेहूदा लगने लगता है, और एक समय पर हास्यास्पद भी हो जाता है।
पुरुष भी अपने शारीरिक मुद्दों से पीड़ित होते हैं। सबसे प्रमुख मुद्दा होता है टकलापन, जो वास्तव में बड़ी उम्र वाले और कम उम्र वाले पुरुष जिनके समय से पहले बाल झड़ने लगते है, उनके आत्म-सम्मान को झटका देता है। जबकि एक किट को अपने उदर को गर्व से थोरैक्स होने का दावा करने का दबाव उतना व्यापक नहीं है जितना महिलाओं में साइज़ जीरो होने का दबाव है, लेकिन यह निश्चित रूप से मौजूद है। जिम जाएँ, हिम्मतवान बने, एक निहित संदेश है या फिर एक मोटे और आलसी व्यक्ति के रूप में जाने जायेंगे। जैसा की शायद एक प्रचलित पोस्टर में लिखा था, केन बनना मुश्किल है और उतना ही मुश्किल बार्बी होना है। खैर, केन को पीपीटी या गर्भावस्था के बाद के खिंचाव के निशान से निपटना नहीं होता।
42 वर्ष की उम्र में मेरी एक दोस्त ने जिम में जाना शुरू किया। उसने अपने पूरे जीवन में कभी भी कोई कसरत नहीं की थी। हालांकि यह एक अच्छी बात है, आखिर फिट होना एक बेहतरीन जीवन लक्ष्य है, लेकिन जल्द ही यह एक जुनून में बदल गया। एक ऐसा समय आया जब वो दौड़ने के साथ एक ही दिन में योग और जिम भी करने लगी थी। वह तब सतर्क हो गयी जब उसके 12 वर्षीय बच्चे ने उसे खाने पर रोक लगाने को कहा क्यूँकि उसे लगता था की उसकी माँ बहुत मोटी थी। (ऐसा नहीं थी, वह बिलकुल ठीक थी)।
दूसरी तरफ, कुछ ऐसी महिलायें हैं जो रजोनिवृत्ति या मेनोपॉज़ होने के बाद ही अपने स्वास्थ्य और फिटनेस के बारे में गंभीर हुई हैं, और उनके लिए यह 'पतला' होने से ज्यादा शरीर को फिट रखना एक बड़ा प्रेरक है क्यूँकि उम्र बढ़ने की प्रक्रिया अब शुरू होती है, और मौत एक बोगेमैन की तरह किसी क्षितिज पर इंतज़ार कर रही होती है। पतले होने की बजाय, ध्यान फिट और स्वस्थ होने पर केंद्रित होना चाहिए। गतिविधि के स्तर और आहार में बदलाव, आदर्श रूप से 'सौंदर्य' के एक निष्क्रिय आदर्श के बजाय फिटनेस के आस-पास घूमना चाहिए। शुक्र है, कई महिलाएं इसे महसूस कर रही हैं, लेकिन दुख की बात है कि वे अभी तक बहुमत में नहीं हैं।
कॉस्मेटिक उद्योग आत्म-सम्मान की लाश पर जीवित रहता है जिसे वह खुद नष्ट करता है। और ऐसा ही वजन घटाने का उद्योग करता है। लोकप्रिय संस्कृति एक और अपराधी है। जहाँ 30 साल की उम्र वाले लोगो को एंटी-एजिंग क्रीम बेचे जा रहे हैं, वहीँ 40 से अधिक उम्र वाली पीढ़ी से अपने मृतक शरीर को बचाये रखने की उम्मीद की जा सकती है। हम उन मशहूर हस्तियों की छवियों से अंधे हो चुके हैं जो चालीस से अधिक उम्र के हैं, और जिन पर मेकअप कलाकारों और स्टाइलिस्टों ने काम करने के साथ-साथ अच्छी तरह से पुराने फ़ोटोशॉप की मदद से ऐसा दिखाया है जैसा की हम उन्हें देखते है। एक आम महिला के लिए, अपनी हमउम्र महिलाओं की इस अवास्तविक छवि से आत्म-सम्मान पर हानि पहुंच सकती है।
जहाँ एक तरफ शरीर गुरुत्वाकर्षण के खिंचाव से झुकता जा रहा है, चेहरा भी उसी दिशा में मुड़ रहा है। जैसे ही हम मध्य-चालीसी में प्रवेश करते है, झुर्रियां, अभिव्यक्ति रेखाएं, त्वचा की बनावट, पिग्मेंटेशन पैच, क्रेपी त्वचा सभी मानो हमारे इर्द-गिर्द रेंगने लगते है। युवा दौर का भोग विलास दिखने लगता है, सनस्क्रीन लगाने में तत्परता की कमी, योयो डाइटिंग, शराब, धूम्रपान सभी जिन्दगी का हिस्सा बनने लगते है। फिलर्स और पील्स की तरह बोटॉक्स अब सबसे अच्छा दोस्त बन जाता है। थोड़े से लिफ्ट के लिए कॉस्मेटिक सर्जरी करा लेते है। पड़ोस के दोस्ताना अंदाज़ वाले त्वचा के क्लिनिक में अब बार-बार जाना होता है। मुसीबत यह है कि ये सब कहां रुकता है, कब एक व्यक्ति खुद की उम्र को ऐसे ढलने देता है जैसा प्रकृति चाहती है? सफ़ेद बालों को भूरे रंग से रंगना, चेहरे को बोटॉक्स से ठंडा करना या विचित्र चिकित्सा प्रक्रियाओं के साथ प्रयोग करना, इनमे से क्या स्वीकार्य है और क्या उसके परे है, इन दोनों के बिच की रेखा बदलती जाती है।
जरुरत है अपने आत्म-मूल्य के ध्यान के केंद्र को बाहरी छवि से उपलब्धियों और व्यक्तिगत विकास की तरफ खींचना। इसके साथ ही खुद से यह भी पूछना शुरू करना कि स्वस्थ होने पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय जवान और 'पतला' रहना हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है। लेकिन यह एक ऐसी सांस्कृतिक परिस्थिति में करना काफी कठिन है जहां हम महिलाओं को इस विश्वास के साथ बड़ा किया जाता है कि हमारी सामाजिक मुद्रा हमारा रूप-रंग है, जहां जवानी और 'पतलेपन' की पूजा की जाती है और जहां बढ़ती उम्र के साथ आपको अदृश्य करना शुरू कर दिया जाता है। आखिरकार, यह सब क्या है- बॉटॉक्स, हद्द से ज्यादा खाने पर रोक, सर्जरी - नहीं, ये सिर्फ हम बढ़ती उम्र वाली महिलाओं का रुदन है जो इस समाज में दीखते रहना चाहती है, वह समाज जो हमारे अस्तित्व को मिटा देना चाहता है।
किरण मनराल एक लेखिका, पत्रकार, वक्ता और सलाहकार हैं। उन्होंने दोनों काल्पनिक और अकाल्पनिक शैलियों में आठ किताबें लिखी हैं।