जुनून और व्यवहारिकता में अंतर

अट्ठारह. भारत में यही वो उम्र है जब आपसे ये तय करने की अपेक्षा की जाती है कि आप क्या पढ़ेंगे और कौनसा करियर चुनेंगे. 18 साल की उम्र वाले कई नवबालिगों के लिए 12वीं की कक्षा एक ख़ौफनाक समय हो सकता है और इसका असर उनकी मानसिक सेहत पर भी पड़ सकता है. कमज़ोर कर देने वाली चिंता और नर्वस ब्रेकडाउन ऐसी अवस्था में असामान्य स्थितियां नहीं हैं.

चिंता से बुरी तरह घिरा हुआ बच्चा अवसाद में जा सकता है और बोर्ड परीक्षाएं छोड़ भी सकता है. हर साल, फ़रवरी-मार्च में कई बच्चे, परीक्षा से जुड़े तनाव, याद रख पाने या ध्यान दे पाने में अक्षमता, रुदन, हिंसक मिज़ाज और अनिद्रा की शिकायत और इनसे निपटने की सलाह लेने के लिए आते हैं.

हमारे देश में कई परिवारों के लिए भविष्य में जीवन की गुणवत्ता जैसा कि वो मानते हैं निर्भर करती है उनके बच्चे के 12वीं के नतीजों पर. लेकिन उन्हें ये भी ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे के अपने डर भी होते हैं. उस पर कोई चीज़ थोपनी नहीं चाहिए और उस पर इतना ज़ोर नहीं डालना चाहिए कि उसकी चिंताएं बढ़ जाएं.

वास्तव में उन्हें उसका सपोर्ट सिस्टम बन जाना चाहिए. भारत में फ़ाइनल परीक्षाओं के दौरान शायद ही कोई दिन होता होगा जब अख़बार में किसी किशोर की आत्महत्या की ख़बर न छपती हो.

ऐसे परिवार जिनके पास ज़्यादा पैसा नहीं है, जहां अभिभावकों की सामान्य तनख्वाहें हैं और रिटायरमेंट हर हाल में होता है, उन्हें अपने 18 साल के बच्चे में अगले पांच साल में वित्तीय बोझ उठाने की संभावना दिखती है और इससे उन्हें राहत मिलती है.

हमारा भारतीय सिस्टम इस लिहाज़ से समाज के एक बड़े हिस्से के लिए कारगर रहता है. 18 साल का छात्र विभिन्न प्रवेश परीक्षाएं देता है और जिस किसी कोर्स में उसका नंबर आ जाता है, वहां दाखिला ले लेता है. अगले चार साल वो डटकर मेहनत करता है और अच्छे अंकों से कोर्स पूरा कर लेता है. इस दौरान वो ख़ुद से या किसी से शायद ही कभी पूछता होगा कि इसमें उसकी दिलचस्पी है भी या नहीं. ये सुविधा उसे हासिल नहीं है.

लेकिन अगर आपके पास विकल्पों की सुविधा तो आप क्या करेंगे? आप पीछे लौटेंगें और सोचेंगे: मुझे वास्तव में क्या चीज़ पसंद है? विकल्प के चुनाव के लिए आपके पास जानकारी भी होनी चाहिए, उपलब्ध कोर्सों और कॉलेजों के बारे में और अपनी अन्तरात्मा के बारे में भी.

अभिभावक, शिक्षक, काउंसलर ऊपरी मदद पहुंचा सकते हैं और आपको मोटे तौर पर कुछ दिशानिर्देश दे सकते हैं, लेकिन वे इतना ही कर पाएंगें. आपके लिए क्या चीज़ ज़रूरी और अर्थपूर्ण हैं, और आपके लिए वो चीज़ आय का साधन कैसे बन सकती है, ये बात आप ही बेहतर समझेंगें और जानेंगे.

अगर आपके पास अपार प्रतिभा है तो एक अलग तरह का या असाधारण करियर का चयन सही है. क्योंकि कई बार सफलता के ऊंचे पायदान पर न पहुंच पाने को नाकामी मान लिया जाता है जैसे पेशेवर खेलों में. ऐसे नौजवान और किशोर जो इन परिस्थितियों के बीच सलाह लेने आते हैं वे निस्तेज और निष्क्रिय हो चुके होते हैं.

लंबे समय की थकान, रुचि के ह्रास यानी घटती दिलचस्पी, नैराश्य या निराशावाद और निष्फलता के अनुभव के लिए मनोवैज्ञानिक शब्दावली है- बर्नआउट यानी निस्तेज या निष्क्रिय. और इस निष्क्रियता का विलोम है सक्रियता. व्यस्तता. जिसकी विशेषता है ऊर्जा, स्फूर्ति, भागीदारी और निपुणता यानी प्रभाव. होना यही चाहिए कि जो भी करियर चुनें वो आपको व्यस्त और सक्रिय रखे.

भारतीय संदर्भ में, आपको अपने मातापिता को अपने चुने हुए विकल्प के बारे में यकीन दिलाना होता है क्योंकि आपकी शिक्षा के लिए पैसा तो वही दे रहे हैं. उदाहरण के लिए, आपको गणित और भौतिकी में बहुत शानदार ग्रेड मिले हैं लेकिन इंजीनियरिंग के बदले आप पत्रकारिता की पढ़ाई करना चाहते हैं.

आमतौर पर ये मान लिया गया है कि किसी आईआईटी से अगर आप बीई की डिग्री लेकर निकलेंगे तो आपको तत्काल नौकरी मिल जाएगी और आप अच्छा कमाने लग जाएंगें. और यही वे यानी आपके माता पिता आपसे चाहते हैं कि आप उसके लिए कोशिश करें. पत्रकारिता क्यों? उन्हें इसका जवाब चाहिए. और इस बात से काम नहीं बनता कि आप अपने माता पिता पर भड़क उठें कि वे आपकी छोटी सी बात नहीं समझ पा रहे हैं.

दुनिया के कई हिस्सों में, हमारे देश में तो कुछ ज़्यादा ही, स्टेम से जुड़े क्षेत्रों को (STEM- Science, Technology, Engineering, Mathematics) यानी विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित से जुड़े क्षेत्रों को रोजगार के मामले में सबसे सुरक्षित और मुफीद रास्ता माना जाता है और सॉफ़्टवेयर इंजीनियर के बारे में माना ही जाता है कि वे अच्छा कमाते हैं. ये एक कठिन स्थिति है और मानसिक खींचतान लंबी खिंच सकती है और इसका अंत कटुता या कड़ुवाहट में हो सकता है. ये एक वास्तविकता है जिसका सामना आज कई बच्चे कर रहे हैं.

फ़ैसला करने के मामले में यूं ये एक व्यवहारिक तरीका दिख सकता है, लेकिन इससे बच्चे के आत्म का नुकसान होता है, उनका यकीन हिल जाता है, उनका आशावाद बिखर जाता है और जीवन को जानने समझने की उनका आनंद छिन जाता है- कहने का आशय ये कि उनकी मानसिक सेहत गड़बड़ा जाती है.

परिस्थितिवश अपने झुकाव से विपरीत कोर्सों में दाखिला लेने को विवश किए गए किशोर अक्सर ऐसे समय में सलाह मांगने के लिए आते हैं जब वे अपने इम्तहानों में पिछड़ हो रहे होते हैं और उनके पास परीक्षाओं का बैकलॉग जमा होता जाता है जिन्हें वे पास नहीं कर पाए थे. उनके पास अपने कोर्स को खत्म करने के सिवा कोई और विकल्प नहीं होते हैं, इसलिए वे किसी तरह लगे रहते हैं, अंदर से पूरी तरह नाख़ुश, ये उम्मीद करते हुए कि डिग्री मिल जाने के बाद चीज़ें सुधर जाएंगें, कमसेकम नौकरी या पैसों के मामले में.

ऐसे छात्र जो महसूस करते हैं कि वे गलत जगह पर आ गए हैं और जो कर रहे हैं उसके लिए फिट नहीं है, वे नाज़ुक और दुर्बल नज़र आते हैं और सलाह लेते समय अक्सर इस तरह के सवाल पूछते हैं, “मैं कौन हूं?” या इस तरह की शिकायतें जैसे “मुझे लगता है कि मुझे याददाश्त की समस्या है.”

वे आमतौर पर किसी पेशेवर या व्यवसायिक कोर्स के मध्य में होते हैं जिसमें उनकी दिलचस्पी नहीं होती है, उन्हें बस डिग्री या डिप्लोमा से मतलब होता है जिसकी बदौलत उन्हें नौकरी मिल सकती है. वे अपनी कोर्स सामग्री को समझने में कठिनाई महसूस करते हैं और अक्सर सोचते हैं क्या वे नासमझ हैं, इस तरह उनमें नाकामी की भावना आ जाती है और भ्रमित हो जाते हैं कि वे वास्तव में कौन हैं और वे आखिर चाहते क्या हैं. इस तरह का अवसाद आमतौर पर ढका हुआ रहता है क्योंकि लोग कभी कभी ये भी महसूस नहीं कर पाते हैं कि वे यानी बच्चे अपनी कठिन परिस्थितियों से कितना ज़्यादा समझौता कर चुके हैं और वे ख़ुद से कितना दूर चले गए हैं.

शिक्षाविदों के मुताबिक, शिक्षा का लक्ष्य है कि आपमें बौद्धिक क्षमताएं विकसित करने के अलावा प्रामाणिकता का विकास भी करे. प्रामाणिक होने के लिए, आपको ये तीन गुण अपने भीतर विकसित करने चाहिएः स्वायत्तता, सम्पूर्णता और सामंजस्य. स्वायत्तता आपको स्वतंत्र ख्यालों वाला व्यक्ति बनाती है यानी आप आज़ादी से सोच पाते हैं. सम्पूर्णता या अखंडता आपके विचारों को स्पष्ट, सुसंगत और अनुकूल बनाती है.

और सामंजस्य या तालमेल आपके विचारों और भावनाओं को एक साथ एक धरातल पर रखता है जिससे दोनों में कोई असंगति न हो और आप शांतिपूर्ण ढंग से रह सकें. अस्तित्ववादी दर्शन में, प्रामाणिक होना, बाहरी दबावों के बावजूद अपने प्रति सच्चा और निष्ठावान बने रहना है. भारत में शिक्षा का विमर्श अब इस दिशा में आ रहा है, लेकिन इसे मुख्यधारा में आने में लंबा वक्त लगेगा.

वर्तमान में, देखने में यही आ रहा है कि एक बड़ी बहुसंख्यक आबादी के लिए शिक्षा का अर्थ रोजगार पा लेना है जिससे परिवार का भरणपोषण हो सके और कर्ज़ अदायगी की जा सके. और ये नौजवान तब तक अपनी प्रामाणिकता के बारे में चिंता भी नहीं करेंगे और न ही आत्म परीक्षण की ज़रूरत पर गौर ही करेंगे जब तक कि उनकी बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं हो जातीं, जैसा कि मास्लोव का ज़रूरतों के अनुक्रम यानी हाइआरकी का सिद्धांत बताता है.

कुछ दिलेर और साहसी बच्चे इस खोल को तोड़ने में सफल रहे हैं यानी वे बंधे बंधाए ढर्रे से बाहर निकले हैं और इस तरह जो बच्चे संकोची और भयभीत हैं उनके लिए वे एक प्रेरणा भी बने हैं. एक हौसला. उम्मीद है कि निकट भविष्य के बच्चों को शिक्षा के नाम पर अपनी मानसिक सेहत को गिरवी नहीं रखना पड़ेगा.

डॉ श्यामला वत्स बंगलौर में कार्यरत मनोचिकित्सक हैं. वो बीस साल से ज़्यादा समय से प्रैक्टिस करती रही हैं. किशोरों और युवाओं पर ये कॉलम पाक्षिक होगा यानी आप इसे हर पंद्रह दिन में पढ़ पाएंगें. अगर आपके पास कोई कमेंट या सवाल हैं जो आप शेयर करना चाहते हैं तो कृपया आप डॉ वत्स को लिखें इस ईमेल पते परः columns@whiteswanfoundation.org

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