प्रसवोत्तर अवसाद के बारे में मुझे क्या नहीं बताया गया

प्रसवोत्तर अवसाद के बारे में मुझे क्या नहीं बताया गया

अवसाद में जाने से तो बचाया नहीं जा सकता पर उसमें डूबने से तो बचाया जा सकता है
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जब आप गर्भवती होती हैं तब ‘वे’ आपको बहुत सारी बातें बताते हैं. ‘वे’ से मेरा मतलब है परिवार, किताबें, वेबसाइट, दोस्त जो इस दौर से गुज़र चुके हैं और यह दिखाने के लिए उनके पास निशान भी हैं. वे आपको ये बताते हैं कि क्या खाना है और क्या नहीं, क्या पहनना है क्या नहीं, व्यायाम कैसे करना है और कितना करना है, क्या दवाएँ लेनी है और किन प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता है. लेकिन प्रसवोत्तर अवसाद के बारे में एक शब्द भी नहीं बताते हैं.

मेरे बच्चे के जन्म के कुछ दिनों बाद (नॉर्मल डेलिवरि), मुझे पता चला कि मेरे बच्चे को मुझसे पर्याप्त दूध नहीं मिल रहा है. फिर पता चला कि बच्चे को कोलिक (पेट का दर्द) है. कहा गया कि दोनों के बीच कुछ कनेक्शन है और इनकार कर दिया गया. हम दोनों की स्तिथि के इलाज की कोशिश की गई जो बेकार साबित हुई.

मुझसे ये कहा गया कि मुझे शांति रखनी होगी क्योंकि मेरा बच्चा तीन महीने का होने तक रात में सात घंटे लगातार रोयेगा जिसका कोई इलाज नहीं. ये भी बताया गया कि पर्याप्त दूध न होना मेरी गलती नहीं है, ‘बेबी फ़ॉर्मूला’ माँ के दूध जितना ही पौष्टिक है, पर मैं स्तनपान नहीं करा सकती क्यों कि दूध का उत्पादन कम है. और ये भी कि ज़्यादातर शिक्षित महिलाओं में ऐसा होता है क्यों कि वे ‘इसके बारे में बहुत सोचती हैं’. ये आखिरी लाइन एक बुज़ुर्ग बच्चों के चिकित्सक ने कहा था, ज़ाहिर है-पुरुष ही होगा.

मुझे बहुत जानकारी दे गयी थी पर ये नहीं बताया गया था इन सबसे थोड़ा दुखी/ चिंतित होना सामान्य है. योनि सर्जरी, शारीरिक थकान, कोलिक से पीडित बच्चा - अपर्याप्तता की भावना, एक के बाद एक ये सभी चीज़ें मुझे बड़ी भयावह नज़र आ रही थीं, ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैं किसी सौंदर्य प्रतियोगिता की प्रतियोगी हूँ.

मैं भी अपने को दोषी मानने लगी- कि डेलिवरी में खास कठिनाई न होने पर भी खुश न होना, बच्ची को बाहों में लेने पर असीम खुशी का एहसास न होना, मदद के लिए माता-पिता के होने का आभारी न होना, कुछ सवालों के जवाब न होना, हर दिन, हर पल जब असहायकता, उदासी, थकान महसूस की थी. ये सब इसलिए हुआ क्यों कि परिवार, मित्रों और पुस्तकों से ये जाना था कि बच्चे के जन्म ऐसी खुशी होती है जो एकदम पवित्र है.

मैं भी अपने को दोषी मानने लगी- कि डेलिवरी में खास कठिनाई न होने पर भी खुश न होना, बच्ची को बाहों में लेने पर असीम खुशी का एहसास न होना, मदद के लिए माता-पिता के होने का आभारी न होना, कुछ सवालों के जवाब न होना, हर दिन, हर पल असहायकता, उदासी, थकान की भावना. ये सब इसलिए हुआ क्यों कि परिवार, मित्रों और पुस्तकों से ये जाना था कि बच्चे के जन्म के बाद ऐसी खुशी होती है जो एकदम पवित्र है. खुशी में कमी की बात छोड़ें, दुख और आक्रोश होना तो जैसे मुझमें ही कोई दोष होगा.

मुझे एक बार भी ऐसा नहीं लगा मुझे जो ‘कुछ गलत’ लग रहा है ये प्रसवोत्तर अवसाद होगा. मैंने किताबों में इसके बारे में पढ़ा था. लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि मैंने सब सही किया था- सही आहार, प्रसवपूर्व योग, डेलीवरी के दिन तक क्रियाशील रही, ऐसा कुछ भी नहीं किया जो नहीं करना चाहिए. क्या मैं वास्तव में उदास थी? या बस थोड़ी उदासी महसूस कर रही थी जो सामान्य है.

बेबी बुक्स और वेबसाइट्स बताते हैं कि बच्चे के जन्म के बाद थोड़ी उदासी की भावना सामान्य है, क्यों कि गर्भावस्था के दौरान अच्छा महसूस करानेवाले सारे हार्मोन बच्चा होने के बाद घट जाते हैं. अगर मुझे उन दिनों की उदासी का वर्णन करना हो तो मैं कहूँगी," हे भगवान! मैं और ज़्यादा सहन नहीं कर सकती. मैं बहुत बुरी माँ हूँ. और ज़बर्दस्ती पपाया खाना!" [ दूध की उत्पत्ति होने के लिए पपाया खाने की सलाह दे जाती है, और मुझे पपाया बिल्कुल नापसंद है. अब तो पहले से भी ज़्यादा ]

मुझे सचमुच नहीं पता है कि मैं प्रसवोत्तर अवसाद से पीड़ित थी. मेरे पति कहते हैं कि शुरू के कुछ महीनों में मेरे साथ रहना उतना आसान नहीं था. मुझे उन पर विश्वास है. मैं ये भी मानती हूँ कि अगर मुझे प्रसवोत्तर अवसाद हुआ था तो मैं आसानी से उससे निकल भी आयी. मैंने अपनी बच्ची से कभी द्वेष नहीं किया है, कभी उसका नुकसान नहीं चाहा है. गंभीर प्रसवोत्तर अवसाद से ग्रस्त महिलाओं में ये भावनाएँ सामान्य हैं. इसके अलावा सामाजिक दबाव जैसे- पूर्व-गर्भावस्था जैसा शरीर, अवैतनिक मातृत्व अवकाश, अगले बच्चे की योजना के बारे में बेशर्मी से विभिन्न लोगों की पूछताछ.

क्या मैं आगे बढ़ूँ?

तो ठीक है, प्रसवोत्तर अवसाद की सतह से गुज़रने के अनुभव के तहत मैं बड़ी दृढ़ता से ये कहती हूँ कि बच्चे के जन्म से पहले माता-पिता दोनों की काउंसलिंग होनी चाहिए. पिता को भी इसकी पूरी जानकारी रहनी चाहिए. अवसाद में जाने से तो बचाया नहीं जा सकता पर उसमें डूबने से तो बचाया जा सकता है.

वेदश्री खमबेटे-शर्मा " देर मे बि एन एस्टेरिक्स इन्वॉल्व्ड " की लेखिका हैं और मुंबई के एक विज्ञापन एजेंसी में क्रिएटिव डायरेक्टर हैं. इनकी दो वर्ष की एक बेटी है.       

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