खेल: उम्मीद की तरफ बढ़ते कदम

खेल: उम्मीद की तरफ बढ़ते कदम

बस उनसे एक रू-ब-रू मुलाकात काफ़ी है यह जानने के लिए कि अपने काम ( मानद) को लेकर उनमें कितनी ललक मौजूद है। वैसे तो वे  पेशे से बतौर इंजीनियर काम कर चुके है, पर अब जो कार्य जोश-ओ-जुनून के साथ कर रहें हैं , वह उल्लेखनीय है। मिलिए डॉ.जे पॉल देवसागयम से, जो तमिल नाडू में विशेष ओलम्पिक्स भारत के क्षेत्र निदेशक है। मानसिक दिव्यांगता ( विकलांगता) के साथ जी रहे बच्चों को सामाजिक मुख्य धारा में जोड़े जाने की प्रबल कोशिश में एकल रूप से कार्य कर रहें , इस शख्स ने तमिल नाडू में खेल-कूद के समग्र दृश्य में क्रांति दिखाई है। विशेष ओलम्पिक्स भारत के प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने पिछले दो दशकों से तमिल नाडू के दूर-दराज़ तक क्षेत्रों में भी बसर कर रहे  बौद्धिक  दिव्यांगों के लिए खेलों को सुलभ बना दिया है। 

श्रीराम के जीवन की दिन चर्या के चित्र यहां देखिए  

नज़ारा है चेन्नई में  दिसंबर महीने की एक गुनगुनी सुबह का।  २२ वर्षीय आर श्रीराम श्रीनिवास ,  सुबह सात बजे अपने दिन की शुरुआत एक घंटे के योगाभ्यास के साथ करता है। फिर वह घर के आस पास एक घंटा साइकिल चलता है। फिर दस बजे स्कूल जाता है। स्कूल से लौटने के बाद वह फिए से अपनी कसरत शुरु कर देता है, एक घंटा तैरने के बाद अन्य खेल प्रशिक्षण में जुट जाता है। देर शाम से लेकर रात्रि भोजन के समय तक, वह  अपने पारिवारिक किराणा की दुकान पर इत्मिनान से बैठता है। 

कमोबश यही दिनचर्या श्रीराम के जीवन की है, जो हमें शायद भारी लगे। लेकिन अगर आप यह सोचें कि जो लड़का करीब तीन साल पहले तक बिना सहारे के खड़ा भी नहीं रह पाता था वह आज यह सब  कुछ रहा है तो उसकी दास्तान अधिक प्रेरणादायक लगती है । 

श्रीराम अनेक तरह की अशक्तता के साथ पैदा हुआ था: मानसिक मंदता ( बौद्धिक अशक्तता ) और स्पेसटिक डेप्लेजिया। 

श्रीराम अपनी किशोरवस्था में आक्रामक और अधीर रहता था, पर जब से उसने खेल को अपने जीवन का  अंग बना लिया है, परिस्थिति बेहतर बन गई है। डॉ.देवसागयम कहते है," खेल को अपनाने के दो फ़ायदें होते हैं। सर्व प्रथम तो इससे बच्चा शारीरिक रूप से दुरुस्त रहता है और व्यवहार को लेकर परेशानियां कम हो जाती है। दूसरा फ़ायदा,  बच्चे  को अपने हमउम्र के साथियों के साथ संपर्क साधने में सहूलियत रहती है। खास कर टीम के रूप में खेलते समय यह प्रभाव दिखाता है। 

शोध में पाया गया है कि बौद्धिक क्षमता में मंद बच्चों के लिए खेल कूद में भाग लेना उनके स्वाभिमान और अस्मिता को बढावा देता है। इसके बावजूद ऐसे बच्चों के माता -पिता  उन्हें शारीरिक श्रम से जुडी किसी भी प्रवृत्ति में भाग लेने से झिझक महसूस करते है। वे यह मान लेते है कि उनके बच्चे खेल -कूद से जुड़े शारीरिक श्रम को झेल नहीं पाएंगे। इस मामले में जागरूकता की कमी मुख्य कारण है जिससे 'एडेप्टिव स्पोर्ट्स' यानी दिव्यांग खेल को मुख्य धारा में जोडने की बात को अभी तक प्रोत्साहन और स्वीकृति नहीं मिल पाई है। शुक्र है कि यह मान्सिकता धीरे धीरे बदल रही है। वे बताते है कि जहां वर्ष २००८ के दौरान तमिल नाडु में केवल २,००० स्पेशल ओलम्पिक खिलाडियों का पंजिकरण हुआ था, वहीं अब आंकडा करीब १.६५ लाख तक  पहुंच गया है। पंजिकरण कराने वाले राज्य के सभी ३२ ज़िलों से आते हैं और जीवन के तमाम आयामों से जुडे होते है। आखिरकार माता-पिता यह मानने लगे हैं कि  बच्चों के लिए रोज़गारोन्मुखी प्रशिक्षण से भी ज़्यादा लाभदायक खेल -कूद में शामिल कराना है। 

श्रीराम की उम्र बारह साल की थी जब उसके माता-पिता ने 'सीरियल कास्टिंग' को आज़माने की कोशिश की थी । इस विधि में प्लास्टर आफ़ पेरिस की पट्टी में पैर को बांधा जाता था, जिससे पैर की मांसपेशियां खिंची रहे, जिससे कुछ हद तक श्रीराम को चलने में आसानी हो सकें । पर उसे इस वज़नदार पट्टी ( १२ किलोग्राम) के साथ तीन महीने गुज़ारने थे, जो हर दस दिनों में बदले जाने थे। इस दरम्यान श्रीराम को अत्याधिक पीडा का सामना करना पडता। सहायता के साथ चलने के अलावा श्रीराम को बिना पैर हिलाए या मोडे,लेटे -लेटे ही वक्त बिस्तार में ही बिताना पडता। 

श्रीराम की मां आर.वनिता कहती है कि,'' श्रीराम १५ साल का था , जब मुझे इस बात का रंज हुआ कि मैं उसे अत्याधिक तनाव में डाल रही हूं। उस समय स्पीच, फिज़ियो, ओक्यूपेशनल, आयुरवेद, बोटोक्स, एक्यूपंचर, इलेक्ट्रिकल मसल स्टिम्यूलेशन जैसी अनेक थेरेपी उस पर लाद दी गई थी। उसे रोक कर परिवार बेहतर विक्लपों की तलाश करने लगा। "

वर्ष २०१३ में श्रीराम के ट्यूटर जी वी अरमुगम के ज़रिए  वे डॉ.देवसगयम से मिले।  यह मुलाकात टर्निंग पोइंट साबित हुई। उसके माता पिता स्पेशियल ओलम्पिक्स भारत के बारे में नहीं जानते थे, और न ही खेल -कूद के लाभ का उनको पता था, पर श्रीराम को उन्होंने इसके लिए भर्ती करा दिया। साल भर की ट्रेनिंग के अंदर ही श्रीराम को दिल्ली में सौ मीटर की एसिस्टेड वॉक ( सहायता के साथ चलने ) की राष्ट्र स्तरीय स्पर्धा में भर्ती करवा दिया गया। वनिता को आशंका थी, पर डॉ.देवसगयम ने हिम्मत बंधाई। आश्चर्य की बात है कि श्रीराम ने रेस पूरी की। वे कहती है,''मैं हैरान थी कि बिना किसी सहारे ही उसने रेस पूरी कर ली." शुरुआत में पिता एस राजशेखरन खेल कूद को इलाज का ज़रिया मानने से आशंकित थे पर अब तहे दिल से अपना चुके है। 

कभी कभार वह पुरानी आदत - आक्रामकता - श्रीराम में आ जाती है। पूरी तरह से ठीक होने में अभी समय लेगगा, पर यह प्रगति भी परिवार के लिए एक सकारात्मक और बड़ा कदम ही है। डॉ.देवसागयम कहते है,''बिना सहारे ही श्रीराम अपने आप खडा हो सकता है, लंबे समय तक खडा रह सकता है, उसकी हृदय-धमनियों की प्रणाली पहले से अधिक सशक्त है। खेल -कूद के कारण रोज़मर्रा के काम में दूसरों पर निर्भरता कम हो गई है। मुझे भरोसा है कि वर्ष २०१९ में होने वाले अंतराष्ट्रीय खेल में वह भाग ले  सकेगा। इतने मजबूत सहायता तंत्र के होते हुए , बहुत जल्द श्रीराम अपने दोनों पैरों पर खडा हो सकेगा। "

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दिव्यांगता के साथ जी रहे लोगों के लिए यह दुनिया बडी कठिन साबित होती है। खास कर उन व्यक्तियों के लिए , जो मल्टिपल डिसेबलिटिज़ यानी अनेक प्रकार की विकलांगता के साथ जन्में हों । डॉ.देवसागयम खेद व्यक्त करते है कि बौद्धिक और शारीरिक रूप से विकलांग लोगों के लिए देश में आधारभूत सुविधाओं की कमी है॥ भारत में सर्वाधिक - ७० मिलियन - की आबादी विकलांग लोगों की है। इसके बावजूद ऐसे लोगों के लिए सुविधाएं , खास कर खेल के मैदानों में कम है। वे कहते है कि ऐसे बच्चों के प्रशिक्षण में यही बाधा आडे आती है। उनके अनुसार साधारण बच्चों और विकलांग बच्चों को खेल प्रशिक्षण देने में कोई अंतर नहीं है, बस सरकार को उनकी ज़रूरतो  के मद्देजनर सुविधाएं मुहैया करानी चाहिए। वे युनिफ़ाइड स्पोर्ट्स जैसी पहल की तारीफ़ करते है और कहते है कि विकलांगता हो या नहीं , सभी तरह के बच्चों को एक साथ जोडने में यह भूमिका  निभा रहा है। पढाई में हो या खेल कूद में , जब तक सभी बच्चों को एक साथ जोडा नहीं जाएगा, समरूपता की बात गति नहीं पकड पाएगी।'' वे कहते है कि धीरज, मेहनत और दृढता जरूरी है। तमिळ की एक कहावत का हवाला देते हुए वे बताते है : श्र्द्धा और उम्मीद के साथ आप किसी भी परिस्थिति से उबर सकते हो और विजयी बन सकते हो."

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