कलंक, शर्म, गोपनीयता और चुप्पी
शर्म आत्मा को खा जाने वाली भावना है।
- कार्ल जंग
मेरे पति की आत्महत्या से मौत से पहले मेरा यह मानना था कि ऐसा सिर्फ दूसरों के साथ होता है। मैं भोली थी जो यह समझती थी कि ऐसी घटना मेरे साथ या मेरे परिवार में नहीं हो सकती है। आत्महत्या के साथ मेरा एकमात्र संस्पर्श मीडिया में आयी खबरों और स्कूल में एक करीबी दोस्त के माता-पिता की आत्महत्या के माध्यम से था। उस उम्र में भी मुझे ये बात खटकी थी की मेरे दोस्त के परिवार ने इस पर चर्चा करने से इनकार कर दिया। इस घटना को उन लोगों ने एक लोहे के परदे से ढक दिया गया था। मुझे लगा कि आत्महत्या में कुछ शर्मनाक था।
विडंबना यह है कि, जब मुझे मेरे पति की आत्महत्या का सामना करना पड़ा, तो मैं खुद शर्मिंदा हो गयी थी। मैं परिवार से क्या कहूंगी? मैं अपने दोस्तों को क्या कहूंगी? क्या वे मेरे पति को अपराधी समझेंगे? इस घटना को न रोक पाने के लिए क्या वे मुझे पत्नी के कर्तव्यों में असफल ठहराएंगे? मैंने उनकी मौत के औपचारिक कारण (लंबी बीमारी, अक्समात मौत, जो भी स्वीकार्य है) और असली कारण (आत्महत्या से मौत) की रणनीति बनानी शुरू कर दी। मैंने फैसला किया की किससे बात कर रही हूँ, इस पर निर्भर करेगा की मैं इन दोनों कारणों में से किसका उपयोग करूंगी।
आज, जब मैं पीछे मुड़ के देखती हूँ, मुझे एहसास होता है कि आत्महत्या से किसी करीबी को खोने वाले और आत्महत्या के प्रयास से बच निकले उत्तरजीवियों की तरह, मैं भी आत्महत्या से जुड़े कलंक का अनुभव कर रही थी। मैं कैसे इसकी चपेट में आ गई? आत्महत्या के प्रमुख वर्णन अपराध और पाप के संदर्भ में पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, मध्ययुगीन यूरोप में, आत्महत्या से मरने वाले लोगों को दफनाने से इंकार कर दिया जाता था, उनके परिवारों को बहिष्कृत कर दिया जाता और उनकी संपत्ति जब्त कर ली जाती थी। हालाँकि आत्महत्या के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण, और आत्महत्या से किसी करीबी को खोने वाले उत्तरजीवीयों के प्रति व्यवहार अब इतना प्रबल नहीं हैं, लेकिन कलंकित करने की परंपरा फिर भी कई सूक्ष्म और अन्य रूपों में बनी हुई है। आत्महत्या को एक चारित्रिक या नैतिक दोष के रूप में देखा जाता है, और इसे सामाजिक तौर पर कोई स्वीकृति नहीं मिली है।
कलंक अपमान का एक प्रतीक है। यह शर्मनाक है या शर्मनाक महसूस करने की बात है। कलंक एक बड़े सामाजिक संदर्भ में बसा है जिससे किसी विशेष मुद्दे को, उदाहरण के लिए, आत्महत्या, मानसिक बीमारी और इनसे प्रभावित लोगों को नकारात्मक तरीके से देखा जाता है। यह सामाजिक कलंक के रूप में जाना जाता है। साथ ही, आत्महत्या से प्रभावित लोगों को शर्मिंदगी, दोषारोपण और न्यायिक भावनाओं को अन्तर्निहित कर लेने के लिए प्रेरित किया जाता है, जिसे आत्म-कलंक के रूप में जाना जाता है।
सामाजिक कलंक आत्महत्या के बारे में नकारात्मक दृष्टिकोण और रूढ़िवादीता को कायम रखता है जिसे सभी लोग बिना प्रतिवाद या सोच-विचार के अपना लेते हैं। इसलिए आत्महत्या के उत्तरजीवियों के लिए, शर्मिंदा महसूस करना और स्वयं को दोष देना अवचेतन प्रतिक्रिया है। लोगों के लिए पीड़ित या परिवार को दोष देना आम बात है, पर कोई यह नहीं समझता कि एक व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करने वाले कारण कई हैं और "वे कारण आत्महत्या के लिए विवश करने वाली कारकों में ही समाहित है जैसे किसी अन्य बिमारियों से मरने वाले लोगो के साथ होता है।" जब हम आत्महत्या के अलावा किसी अन्य कारण से हुई मौत के लिए किसी व्यक्ति या परिवार को दोषी नहीं ठहराते हैं, तो फिर हम आत्महत्या से हुई मौत के लिए दोषारोपण जैसे खेलों में क्यों शामिल होते हैं: "क्या आपको इसकी कतई आशंका नहीं थी?" "क्या कोई संकेत नहीं मिले थे?"
कई तरीकों हैं जिनके माध्यम से नकारात्मक दृष्टिकोण को व्यक्त किया जा सकता है: गपशप, निरंतर अटकलें लगना और सवाल पूछना, मीडिया में नकारात्मक चित्रण, असंवेदनशीलता, सामाजिक अलगाव, आत्महत्या के पीड़ितों और उनके परिवार के सदस्यों का नाम लेना और उन्हें दोषी ठहरना। या इससे भी बदतर, आत्महत्या से जुड़ी एक "चुप्पी की दीवार" है जो यह स्पष्ट करती है कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से वर्जित है और इसलिए इसके बारे में खुले तौर पर बात नहीं की जानी चाहिए; बल्कि एक "गोपनीय बात" की तरह छिपा दी जाती है।
ऐसी अटकलें आत्महत्या के उत्तरजीवी पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं और उनके कष्ट को बढ़ा देती है। वे हमारे प्राथमिक नुकसान को बढाती हैं और दु:ख को पेचीदा और मुश्किल बनाती है। आत्महत्या से जुड़े सामाजिक कलंक से आत्म-कलंक महसूस होता है जो आत्म-मूल्यांकन में कमी, अपराध, शर्म और स्वयं को दोष देने से से जुड़ी होती है, और जो हमारे दुःख के प्रक्षेपण और कल्याण के प्रयास को प्रभावित करती है।
अंधेरे में पनपते फफूंदी की तरह, आत्महत्या से जुड़े कलंक, शर्म, गोपनीयता और चुप्पी अज्ञानता, भय और नकारात्मक रूढ़िवाद के अंधेरे में पैदा होती है। लेखक मैगी व्हाइट कुशाग्रबुद्धि से शर्म और कलंक के बीच की सहजीविता पर रोशनी डालते हुए कहते है: "आत्म-कलंक शर्म की जन्मस्थली है। और शर्म और कलंक लंबे समय से एक विनाशकारी और चक्रिय नाच नाच रहें है।" आत्महत्या और कलंक के बीच का रिश्ता क्लासिक मुर्गी का बच्चा और अंडे की पहेली की तरह है। कौन पहले आया था? हालांकि, यह असली मुद्दा नही है।
आत्महत्या एक ऐसी सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है जिसका निवारण किया जा सकता है। यह जनसांख्यिकीय बाधाओं को नहीं मानता और कोई भी इससे बचा हुआ नहीं है। हमें करुणा, चिंतन और देखभाल के माध्यम से आत्महत्या पर सशक्त करने वाली बातचीत को मुख्यधारा का विषय बनाने की आवश्यकता है। विभिन्न हितधारकों के एकजुट होने से आत्महत्या से जुड़ी चुप्पी की सामूहिक बाधाओं और दीवार को तोड़ा जा सकता है और समर्थन और जुड़ाव के पुलों का निर्माण किया जा सकता है। आत्महत्या रोकना हर किसी की जिम्मेदारी है। हर आवाज मायने रखती है।
डॉ. नंदिनी मुरली संचार, लैंगिक और विविधता से जुड़ी एक पेशेवर है। आत्महत्या हानि की हालिया उत्तरजीवी, उन्होंने आत्महत्या पर चर्चाओं को बदलने और मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए एमएस चेलामुथू ट्रस्ट एंड रिसर्च फाउंडेशन, मदुरै की पहल पर स्पीक की स्थापना की है।