आत्महत्या हमारी भी समस्या है
हाल के वर्षों में, आत्महत्या का उभार एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में हुआ है. भारत में कई मौतें, बीमारियां, अस्पताल में भर्ती मरीज़ों की संख्या में वृद्धि और सामाजिक आर्थिक नुकसान इस वजह से हुई हैं. आत्महत्या, उसकी कोशिश, उसके प्रति रुझान, उसका ख़्याल, सामान्य तौर पर भारत के हर हिस्से मे देखे जा सकते हैं, विभिन्न जगहों पर आत्महत्या की संख्या भी अलग अलग हैं.
कुछ अध्ययन बताते हैं कि आत्महत्या से मरने वाले हर व्यक्ति के सापेक्ष कमसेकम दस से पंद्रह गुना अधिक लोग आत्महत्या की कोशिश करते हैं और उससे भी सौ गुना अधिक लोग इसके बारे में सोचे हैं. आबादी के तौर पर हम ऐसे विचारों या व्यवहारों पर गंभीर ध्यान नहीं देते हैं, इसलिए ये मामले नोटिस में नहीं आ पाते और पहचाने नहीं जाते. इस तरह बहुत सारे अन्य लोग आत्महत्या की कोशिश के लिए विवश होते हैं या आत्महत्या की कगार पर आ जाते हैं या अपनी जान ही ले बैठते हैं. इसके चलते ही आत्महत्या की रोकथाम का जिम्मा न सिर्फ चिकित्सा समुदाय और सरकार का रह जाता है बल्कि इसकी जिम्मेदारी समाज पर भी आ जाती है. बशर्ते हम लोग आत्महत्या के लिए बेचैन लोगों की पहचान करने के कौशल से लैस हों.
आत्महत्या की रोकथाम के इस खंड में, हम आपकी ये समझने में मदद करेंगे कि आप आत्महत्याएं रोकने के लिए क्या कर सकते हैं जो कि जन स्वास्थ्य का एक मामला बन गया है.
लेकिन उससे पहले, हमें इस समस्या के पैमाने और फैलाव को समझ लेना होगा जो हमारे ही बीच स्थित है. भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो Bureau (NCRB) की आधिकारिक रिपोर्टों के मुताबिक 2013 में 1,34, 799 लोगों ने आत्महत्या की थी. आत्महत्या के मामलों में भारत में समय के साथ अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है. 1980 में जहां करीब 40,000 मामले आत्महत्या के पाए गए थे वहीं 2013 में ये क़रीब 1,35,000 के आंकड़ें को छूने लगे. भारत में आत्महत्या की सालाना राष्ट्रीय दर प्रति एक लाख की आबादी में ग्यारह की है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों के स्वतंत्र शोध अध्ययनों से पता चलता है कि आत्महत्या के आधिकारिक आंकड़ें अपर्याप्त और गलत रिपोर्टिंग के चलते समस्या को कमतर ही आंकते हैं.
चूंकि आत्महत्या को अभी भी मेडिको लीगल मुद्दा माना जाता है लिहाज़ा पुलिस, अदालत और सामाजिक लांछन के डर से सही आंकड़ें सामने नहीं आ पाते हैं.
इस पूरे स्पेक्ट्रम में आत्महत्या की कोशिश एक दूसरा बिंदु है. भारत और देश से बाहर के अध्ययन बताते हैं कि आत्महत्या के हरेक मामले के सापेक्ष 10 से 15 आत्महत्या की कोशिश के मामले सामन आते हैं जिन्हें पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधा मिल पाती है या नहीं मिल पाती हैं. इसलिए माना जाता है कि भारत में हर साल आत्महत्या की कोशिश के करीब 1,500,000-2,000,000 मामले होते हैं.
आत्महत्या के लिए बेचैन व्यवहार या उसके प्रति रुझान दिखाने वाले लोगों की संख्या सिर्फ एक अनुमान ही है क्योंकि भारत में इस समस्या को समझने के लिए बड़े पैमाने पर कोई जनसंख्या आधाकिरत अध्ययन नहीं किए गए हैं. लोग आत्महत्या क्यों करते हैं, इस केंद्रीय सवाल की जटिलता बनी हुई है. आधिकारिक रिपोर्टें बताती हैं कि 15.6 फीसदी मामलों में कारण पता नहीं चले थे. आम और मोटे तौर पर बताए गए कारणों में परिवार की समस्या, बीमारी, आर्थिक कारण, दहेज हत्याएं आदि तो हैं लेकिन इनके आधार पर विशिष्ट और लक्षित किस्म के हस्तक्षेप नहीं बनाए जा सकते हैं.
शराब की लत, घरेलू हिंसा, अत्यन्त गंभीर संकटपूर्ण स्थिति, और मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं जैसे अवसाद भी आत्महत्या की वजहों की सूची में शामिल हैं. इन वजहों के साथ साथ अगर परिवार, दोस्त और समाज के सपोर्ट की अनुपस्थिति को भी मिला लें तो संकट की स्थिति में ये भी भी आत्महत्या की कोशिश को बल ही देते हैं. दुनिया भर के कई संगठनों के शोधों से पता चला है कि आत्महत्या की वजह बनता है सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी कारकों का एक मिलाजुला असर, उनका अंतर्सबंध और अक्सर व्यक्ति, परिवार और समाज में मौजूद रिस्क फ़ैक्टरों की वजह से भी आत्महत्या के मामले देखे गए हैं.
ये जटिल अंतर्संबंध आखिरकार व्यक्ति को नाउम्मीदी, असहायता, और व्यर्थता की ओर खींच ले जाता है जिसकी परिणति आत्महत्या के रूप में होती है.
आत्महत्या की वजहों पर जारी बहस के बावजूद ये बिल्कुल साफ़ हो गया है कि आत्महत्याओं का अनुमान लगाया जा सकता है उन्हें रोका जा सकता है.
कुछ प्रमुख हस्तक्षेपों ने आत्महत्या के मामलों में कटौती में योगदान दिया है. कीटनाशकों और नशीले पदार्थों और दवाओं की आसान उपलब्धता पर अंकुश लगा देना, आत्महत्या की कोशिश करने वाले व्यक्तियों की समय पर और पर्याप्त चिकित्सा देखरेख, स्वास्थ्य पेशेवरों तक पहुंच, और सुसाइड हेल्पलाइन जैसी तरतीबें तो हैं ही इनके अलावा आत्महत्या के व्यवहार की शुरुआती पहचान और समय का प्रबंधन भी कारगर रहता है. शुरुआती पहचान के काम को शैक्षणिक संस्थानों में, कार्यस्थलों पर, और समुदायों के बीच जनजागरूकता कार्यक्रमों से मदद मिलती है जिनसे लांछन और दोषारोपण जैसी चीज़ें कम की जा सकती हैं.
इसमें कोई शक नहीं है कि कठिन हालात से व्यक्तियों को कैसे निपटना चाहिए, इस बारे में बेहतर मीडिया रिपोर्टिंग अभ्यास हों तो ये मददगार होते हैं. आत्महत्या की रोकथाम की नीतियों और कार्यक्रमों के सही सम्मिलन और इसके साथ साथ जन भागीदारी से ये संभव है कि कठिन हालात में अपनी जान लेने की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोका जा सकेगा.
डॉ जी गुरुराज, निमहान्स में एपिडिमियोलॉजी विभाग में प्रोफ़ेसर और विभागीय प्रमुख हैं.