मानसिक स्वास्थ्य के प्रति हमारी धारणा

मानसिक स्वास्थ्य के प्रति हमारी धारणा

मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से वैसे ही निपटना चाहिए जैसे कोई शारीरिक स्वास्थ्य समस्याओं से निपटता है.
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मैंने मानसिक बीमारी के बारे में सबसे पहले तब सुना जब मैं आठ साल की थी. मेरी मां और मैं गांधी बाज़ार की ओर जा रहे थे. गंदे फटे कपड़े पहने उलझे बालों वाले एक आदमी के इर्दगिर्द भीड़ जमा थी. वो हवा में अपनी मुट्ठियां लहरा रहा था और ज़ोर ज़ोर से गालियां बक रहा था. मेरी मां ने कसकर मेरा हाथ पकड़ा और कहा, “चलो यहां से चलते हैं. ये पागल है. ख़तरनाक हो सकता है.”

‘पागल आदमी’ की ये घिसीपिटी और रूढ़िवादी छवि आगे चलकर फ़िल्मों और किताबों में आए विवरणों से और मजबूत बनती गई. उसी दौरान आगे चलकर मैंने जाना कि पागलों का इलाज मनोचिकित्सकों को करना चाहिए. समय के साथ ये धारणा बनती गई कि मनोचिकित्सक पागलों का इलाज करते हैं.

मानसिक बीमारी का अर्थ था पागलपन. ये स्वाभाविक है कि मानसिक बीमारी को लेकर कम उम्र के लोगों के ज़ेहन में सबसे पहला ख़्याल यही आता है. ये ऐसा ही है जैसे बच्चे सोचते हैं कि सूरज और चांद का आकार एक जैसा है. अगर ये सोच नहीं बदली गयी तो ये एक गलत धारणा बन जाती है और लोगों को मदद लेने से रोकती है. या तो वे खुद अपने लिए मदद नहीं मांग पाते न ही अपने प्रियजनों के लिए जिनकी वे चिंता करते हैं. “तुम मुझे मनोचिकित्सक के पास जाने को कहते हो! तुम्हारा मतलब है कि मैं पागल हूं?” मनोचिकित्सक के पास जाने की सलाह देने से आमतौर पर यही प्रतिक्रिया सुनने को मिलती है.

कई बीमारियां दिल, फेफड़ो, गुर्दों, यकृत और कमोबेश, मानव शरीर के हर अंग को अपनी चपेट में ले लेती हैं. तो फिर हम दिमाग के साथ अलग ढंग से क्यों पेश आएं?

आंख के कोर्निया से किसी वस्तु की छवि के गुज़रने से लेकर दिमाग के इसे पहचानने तक घटनाओं की एक लंबी श्रृंखला बनती है. हम इस प्रक्रिया को तवज्जो नहीं देते क्योंकि इसमें चंद नैनोसेकंड का वक़्त लगता है. मिसाल के लिए, जब हम एक आइसक्रीम के कोन को देखते हैं तो हज़ारों कोशिकाएं इस एक विचार को पैदा करने में काम करती हैं, कि “वाह, ये चॉकलेट आइसक्रीम है!” विचारों या घटनाओं की एक कड़ी बन जाती है क्योंकि तंत्रिका कोशिकाएं न्यूरोट्रांसमीटर नाम के रसायनों के ज़रिए संवाद करती हैं.

अगर आंख में दो तंत्रिकाओं के बीच की जगह में किसी रसायन की वजह से कोई गड़बड़ी आ जाती है और संपर्क नहीं बन पाता है तो आंख आइसक्रीम को नहीं देखेगी. नतीज़तन, दिमाग को पता नहीं चलेगा कि ये आइसक्रीम है क्योंकि उस चीज़ को पहचानने वाले दिमाग के हिस्सों का संपर्क टूट जाएगा.

इसी तरह तंत्रिकाएं और न्यूरोट्रांसमीटर सोचने की प्रक्रिया में शामिल रहते हैं. अगर वे ठीक से काम नहीं करेंगे तो हमारे विचार, और नतीज़तन, हमारा व्यवहार प्रभावित होगा. मानसिक बीमारियों का इसीलिए एक जैविक आधार होता है जैसा कि डायबिटीज़ का या पार्किन्सन्स बीमारी का.

करीब 90 फीसदी मानसिक बीमारियां, सर्दी जुकाम, त्वचा की एलर्जी, सिरदर्द, कानदर्द या डायरियां जैसी ही साधारण और सामान्य होती हैं. यह वे बीमारियां हैं जिनके लिए लोग अपने जनरल फ़िजीशियन के पास जाते हैं. अगर आप पेट में जलन के लिए अपने डॉक्टर के पास जाते हैं, तो वो बताएगा कि आपको एसिडिटी है और आपको एक एंटासिड देगा. वो आपसे पूछेगा कि आप क्या चिंतित तो नहीं रहती, जो संभवतः आप हैं और आपको चिंता में कमी के लिए एक दवा देगा.

अगर इस दवा के बावजूद दो हफ्तों तक आपकी चिंता और घबराहट बनी रहती है, तो वो आपको मनोचिकित्सक के पास जाने की सलाह देगा. अब आप ही बताइये, ये किसी आंख नाक गले के स्पेशलिस्ट के पास भेजने से किस तरह अलग है? माना आपके कान में दर्द है और फ़िजीशियन की दवा से फ़र्क नहीं पड़ता, तो वो आपको स्पेशलिस्ट को ही रेफ़र करता है. इसी तरह आपको अगर घबराहट है और फ़िजीशियन के पास उसका इलाज नहीं है तो वो स्पेशलिस्ट के पास ही आपको भेजेगा.

छह महीने पहले, मैंने 35 साल की एक महिला को देखा था जो फालतू चीज़ों के बारे में लगातार सोचती रहती थी और इस वजह से उसकी ज़िंदगी दूभर हो गई थी. उसे आ रहे ख़्याल अनियंत्रित थे और ऐसा कोई तरीक़ा नहीं था जिसकी मदद से वो उन ख्यालों को अपने दिमाग से पूरी तरह निकाल पाती. वो हमेशा घबराई हुई रहती थी, उसका उच्च रक्तचाप का इलाज चल रहा था, सो नहीं पाती थी और मतली और पेट में स्थायी रूप से बने हुए जलन भरे दर्द की वजह से खाना नहीं खा पाती थी.

उसका पति उसके पास किंकर्तव्यविमूढ़ और बेबस होकर बैठा रहता. उसने एक बार ही अपना मुंह खोलाः मुझे ये बताने के लिए वो अपनी पत्नी से तलाक़ चाहता है. वो अपनी पत्नी के व्यवहार से क्षुब्ध और खिन्न था और डॉक्टरों के पास उसकी लगातार मुलाक़ातों से तंग आ गया था. उसे अपने लक्षणों से कोई स्थायी राहत नहीं मिल रही थी. शादी के 12 साल हो गए थे और ये सब जारी था.

घर में ढंग का खाना नहीं बनता था, घर पूरी तरह बेतरतीब और बिखर गया था और उनके बच्चे की भी उपेक्षा हो रही थी. उन दोनों के बीच किसी तरह का सहज संवाद होता ही नहीं था क्योंकि वो हर समय गुस्से से भरी रहती थी, रो पड़ती थी और आत्महत्या की धमकी देती थी.

लक्षणों का पता चलने के बाद दवाएं शुरू कर दी गईं, उससे पिछले छह महीनों में उसके बीमारी के लक्षण कम होने लगे. अब वो काम पर जाती है और उसके घर पर अब अलग होने की बातें नहीं होती क्योंकि पति पत्नी के संबंधों में काफ़ी सुधार आ गया है. उनका घर अभी भी बिखरा हुआ रहता है लेकिन अब वो उत्साहपूर्वक कहती है कि वो घर की हालत को सही करने में अपना योगदान देगी.

अत्यधिक उदासी, डर या गुस्से के मानसिक लक्षणों के बारे में लोग मदद लें या नहीं, ये निर्भर करता है कि ‘मानसिक बीमारी’ को लेकर उनकी क्या धारणा है. अगर मानसिक बीमारी के बारे में गलत धारणाएं दूर कर ली जाएं तो लोग उन समस्याओं से भी वैसे ही निपट लेंगे जैसे वे अपनी शारीरिक स्वास्थ्य समस्याओं से निपट लेते हैं.

डॉ श्यामला वत्स, बंगलौर में पिछले 20 साल से कार्यरत मनोचिकित्सक हैं.

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