मनोचिकित्सा का विज्ञान
11वीं कक्षा की छात्रा, आशा को कुछ महीनों तक बेहोशी और अजीबोग़रीब व्यवहार के दौरे पड़ते थे. उसके परिवार को बहुत चिंता हो गई थी और वे उसे कई मंदिरों और बाबाओं के पास ले गए थे. उन्हें बताया गया कि उस पर भूत का साया है. इधरउधर बहुत सारा पैसा और प्रयत्न बर्बाद करने के बाद वे आशा को एक जनरल फ़िज़ीशियन के पास ले गए, जिसने उन्हें एक मनोचिकित्सक को रेफ़र कर दिया. उसके मातापिता हिचकने लगे. क्या मनोचिकित्सक उन्हें बिजली के झटके देगा या नींद की गोलियाँ देगा? क्या वे उसे सम्मोहित करेंगे? कहीं वे उसे पागल तो करार नहीं कर देंगे?
जब आशा मेरे पास आई तो वो टूटी हुई थी. वो एक के बाद दूसरे बाबा के पास जा जाकर तंग आ चुकी थी. थोड़ी सी पूछताथ से पता चला कि वो 11वीं में पढ़ाई का अत्यधिक बोझ महसूस कर रही थी और उसके परिवार की उम्मीदें उसे और दबाए जा रही थीं. हर टेस्ट से पहले वो घबरा जाती और फ़ाइनल परीक्षा से पहले उसकी घबराहट बहुत ज़्यादा बढ़ जाती थी. इस वजब से उसे बेहोशी के दौरे आने लगे और वो अजीब हरकतें करने लगीं. इस वजह से, वह ना ठीक से खा रही थी, ना सो रही थी.
आशा को अवसाद निरोधी दवाएं दी गई, साथ में उसे हालात से निपटने के गुर बताए गए, दिमाग और शरीर के आपसी संबंध के बारे में जानकारी दी गई, उसे परिवार की चिंताओं से भी अवगत कराया गया और ये समझाया गया कि उसके तनाव से ही उसके शरीर पर वो सब गुज़रा था. दवाएं और सलाहें काम आईं और आशा के स्वास्थ्य में तेज़ी से सुधार हुआ.
मेडिकल स्पेशिलिटी के तौर पर मनोचिकित्सा ने पिछले चार साल में उल्लेखनीय तरक्की की है. 1930 और 40 के दशक में ज़्यादातर इलाज मनोवैज्ञानिक होता था और उसके लिए साइकोएनालिसिस का तरीक़ा अपनाया जाता था. इसमें मरीज़ों से घंटों की बैठकों के दौरान बात की जाती थी, उनकी परेशानी सुनी जाती थी. इलाज का ये तरीक़ा सालों साल तक चलता था और बचपन से जुड़े मुद्दों और सदमों के आधार पर समस्या की छानबीन की जाती थी. शुरुआती उत्साह तो इस इलाज को लेकर बना, लेकिन धीरे-धीरे इस तरीक़े ने संदेहों को जन्म दिया, ख़ासकर इसलिए क्योंकि इलाज लंबा था और ठीक होना अनिश्चित था.
1950 के दशक में मनोविकार संबंधी दवाएं सामने आईं, जिसने मनोरोगों के प्रबंधन के तौर तरीक़ों में बड़ा बदलाव ला दिया. ऐसे मरीज़, जिन्हें पहले मानसिक आरोग्यशालाओं में भर्ती कराना पड़ता था, उनका इलाज घर पर ही होने लगा और वे समुदाय के बीच ही रहकर कमोबेश सामान्य ज़िंदगी गुज़ारने में समर्थ हो पाए.
तबसे, मनोरोग या मानसिक विकार और उनके इलाज की समझ को लेकर काफ़ी काम हुआ है. मस्तिष्क के अध्ययन के नए और आधुनिक तरीकों ने मनोरोगों के विषय में बेहतर समझ का निर्माण किया. व्यापक शोध हुए और इनसे नई दवाओं और मनोचिकित्सकीय इलाजों का विकास हुआ जो हर किस्म के मनोविकार से संबंद्ध थे. ये एक महत्त्वपूर्ण बदलाव है, ख़ासकर ये देखते हुए कि अब गैर संक्रामक बीमारियों की चार प्रमुख श्रेणियों में मधुमेह और उच्च रक्तचाप के अलावा एक श्रेणी मनोविकार की भी मानी गई है.
मनोचिकिस्तक से किसी की क्या अपेक्षा हो सकती है?
साइकीऐट्रिस्ट यानी मनोचिकित्सक एक डॉक्टर है, जो मानसिक स्वास्थ्य संबंधी गड़बड़ियों का पता लगाने और उनका इलाज करने में विशेषज्ञता हासिल करता है, और इसके लिए वो चिकित्सा के अलावा मनोवैज्ञानिक तरीक़े भी इस्तेमाल करता है. जब आप पहली बार मनोचिकित्सक से मिलते हैं, तो वो आपकी समस्या का एक विस्तृत इतिहास जानना चाहता है और आपसे आपके बचपन, परिवार और पुरानी चिकित्सा समस्याओं के बारे में पता करता है. फिर, वो उन बीमारियों के लिए भी शारीरिक परीक्षण करता है, जिन्हें मनोरोग मान लेने की गलती की जा सकती है. इसके बाद वो मानसिक स्थिति का परीक्षण भी करता है. इसके तहत मरीज़ के मूड, विचार, बौद्धिकता, बौद्धिक क्षमताओं और अन्य अनुभवों का परीक्षण करता है, वो समस्या के प्रति आपकी समझ का भी आंकलन करता है.
मनोचिकित्सक, अपने मरीज़ को समग्र तौर पर देखता है और उस माहौल के प्रति व्यक्ति की भूमिका और उसकी अंतःक्रिया का अध्ययन करता है, जिसकी वजह से बीमारी या लक्षण पैदा हुए हैं या बने हुए हैं. इलाज में आमतौर पर दवाएं और मनोवैज्ञानिक परीक्षण शामिल किए जाते हैं. इलाज की इस प्रक्रिया में परिवार का एक अहम किरदार है. इस समग्र रवैये के साथ मनोचिकित्सक अलगथलग होकर काम नहीं करते हैं. इलाज की प्रक्रिया में मानसिक स्वास्थ्य के जानकार पेशेवरों की टीम भी रहती हैं, जिसमें साइकोलॉजिस्ट यानी मनोविज्ञानी, सामाजिक कार्यकर्ता और एक नर्स शामिल हैं. कई मौक़ो पर जनरल फ़िजीशियन, GP(सामान्य चिकित्सक) को भी शामिल किया जाता है.
ध्यान देने वाली बात है कि तमाम मानसिक विकारों को एक जैसे इलाज की ज़रूरत नहीं रहती है. हल्की समस्याओं को सिर्फ़ थेरेपी से दूर किया जा सकता है. कुछ मनोरोगों के लिए दवाएं और थेरेपी एक साथ चलानी पड़ती हैं, जबकि कई गंभीर मामलों में दवाएं अनिवार्य हो जाती हैं.
और ये भी ज़रूरी नहीं है कि सिर्फ़ मनोचिकित्सक से ही सलाह ली जाए, ख़ासकर हल्कीफुल्की मानसिक रोगों के लिए, जैसे कुछ समय की घबराहट या संक्षिप्त या हल्के अवसाद के लिए. इसके लिए काउंसलर, जनरल फिज़ीशियन या अन्य मानसिक स्वास्थ्य प्रोफ़ेश्नल से मिला जा सकता है. अगर ज़रूरत पड़ी तो ये जानकार आपको मनोचिकित्सक के पास जाने की सलाह दे सकते हैं.
मनोचिकित्सा के बारे में मिथक
मनोचिकित्सा जबकि एक जानीमानी स्थापित चिकित्सा पद्धति और विशेषज्ञता है, इसके बावजूद इसे लेकर कई तरह की भ्रामक धारणाएं देखी जाती हैं, जिनकी वजह से मनोविकार-संबंधी मुश्किलों के हल में अवरोध आ जाते हैं.
ये अवरोध समस्या के कारणों से जुड़े भ्रमों को लेकर होते हैं. जैसे क्या चीज़ कारगर रहेगी, मनोचिकित्सक क्या करेगा, दवाओं का और अस्पताल जाने और वहां भर्ती होने का डर इत्यादि. मनोचिकित्सकों के पास जाने से जुड़ी शर्म या लोकलाज और ये धारणा कि जो भी मनोचिकित्सक से मिलने जाता है उसे ‘पागल’ कहा जाने लगेगा, ये सब मिथक इस मामले से अक्सर जुड़े पाए गए हैं.
मानसिक विकार के लक्षण अक्सर रहस्यमय नज़र आते हैं और तत्काल समझ नहीं आते, इसके चलते लोग मदद के लिए बाबाओं, मंदिरों और दरग़ाहों के चक्कर काटने लगते हैं.
कुछ लोगों को डर रहता है कि अवसाद या घबराहट की भावना को स्वीकार करना कमज़ोरी की निशानी है, और इसलिए वे इलाज ही नहीं कराते. लेकिन इन अवरोधों से निकलना और समय पर मनोविशेषज्ञ से सलाह लेना बहुत ज़रूरी है. अक़्सर, मरीज़ के परिजन मनोचिकित्सक के पास देर से पहुंचते हैं, वे अपना धन और ऊर्जा इससे पहले खर्च कर चुके होते हैं. इलाज में देरी के दीर्घ और गंभीर नतीजे हो सकते हैं. तत्काल हस्तक्षेप से, जो लक्षण और तनाव दूर किए जा सकते हैं, वे सूचना की कमी, सेवाओं की अनुपलब्धता, अपनी ग़लत धारणाओं की वजह से गंभीर और पुराने हो सकते हैं.
ख़ुशक़िस्मती से आशा को जनरल फ़िजीशियन के पास ले जाया गया था जिसने हालात बिगड़ने से पहले ही उसे मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े जानकार के पास रेफ़र कर दिया था. अब वो अपनी घबराहट और चिंता से बख़ूबी निपट लेती है और उसे दवाओं पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है.
डॉ प्रभा एस चंद्रा, निमहांस में मनोचिकित्सा की प्रोफ़ेसर हैं.